SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आइण्णे णामं सत्तरसमं अज्झयणं आकीर्ण नामक सतरहवां अध्ययन (१) __जइ णं भंते! समणेणं० सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सत्तरसमस्स० णायज्झयणस्स के अढे पण्णत्ते? भावार्थ - जंबू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से जिज्ञासित किया - भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सोलहवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ आख्यात किया है तो कृपया बतलाएं, उन्होंने सतरहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है? - एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे णामं णयरे होत्था वण्णओ। तत्थ णं कणगकेऊ णामं राया होत्था वण्णओ। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया - हे जंबू! उस काल, उस समय हस्तिशीर्ष नामक नगर था। नगर का विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र से ग्राह्य है। वहाँ कनककेतु नामक राजा था। राजा का वर्णन भी औपपातिक सूत्र से यहाँ योजनीय है। .. समुद्री यात्रा में उत्पात .. तत्थ णं हत्थिसीसे णयरे बहवे .संजुत्ताणावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहूजणस्स अपरिभूया यावि होत्था। तए णं तेसिं संजुत्ता-णावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ (सहियाणं) जहा अरहण्णओ(ए) जाव लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy