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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र xoooooooo▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪▪¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤..................... २५० हस्तिकल्प नगर से बाहर निकले। सहस्राम्रवन उद्यान में आए। वहाँ मुनि युधिष्ठिर के पास गए। आहार-पानी का प्रत्यवेक्षण किया। गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । एषणा - गवेषणा की, आलोचना की। मुनि युधिष्ठिर को आहार- पानी दिखलाया। दिखला कर यों बोलें। (२२६) एवं खलु देवाणुप्पिया! जाव कालगए। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इमं पुव्वगहियं भत्तपाणं परिट्ठवेत्ता सेत्तुंजं पव्वयं सणियं २ दुरुहित्तए संलेहणाए झुसणासियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए कट्टु अण्ण एयम पडिसुर्णेति २ त्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एते परिद्ववेंति २ त्ता जेणेव सेत्तुं जे पव्वए तेणेव उवागच्छंति २ त्ता सेत्तुंजं पव्वयं सणियं २ दुरूहंति० जाव कालं अणवकंखमाणा विहरंति । शब्दार्थ - झूसणा आराधना । भावार्थ - देवानुप्रिय ! हमने भिक्षार्थ घूमते हुए सुना यावत् भगवान् अरिष्टनेमि गिरनार पर्वत पर कालगत हो गए हैं, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए हैं। देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि पूर्वगृहीत- अभी लाए हुए आहार- पानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रुंजय पर्वत पर चढ़ें। वहाँ मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए, संलेखना - तप की आराधना से कषायों और देह को क्षीण करते हुए साधनारत रहें। उन सबने परस्पर यों विचार कर इसे स्वीकार किया और उन्होंने पूर्वगृहीत आहारपानी को एकांत में परठा। तत्पश्चात् वे शत्रुंजय पर्वत के पास आए। उस पर चढ़े यावत् संलेखणा, तपश्चरण में लीन रहते हुए, मृत्यु की कामना न करते हुए, आत्मोपासना में निरत रहे । पांडवों की सिद्धगति - Jain Education International - (२२७) तए णं ते जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता दोमासियाएं संलेहणाए For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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