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________________ २४८ . ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र anmompRamanpsanee/RBIPERRORaeesmRRRRRRREDARPALORD படதUTELEகதுபசைகைககைககமம் RAKARENABARAMARGRep Re t reena + + + + तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरिट्ठणेमिं वंदणाए गमित्तए। अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति २ त्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति २ त्ता थेरे भगवंते वंदंति णमंसंति वं० २ ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा। अरहं अरिट्ठणेमि जाव गमित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! भावार्थ - उस काल, उस समय तीर्थंकर अरिष्टनेमि सौराष्ट्र जनपद में पधारे। वहाँ संयम एवं तप से आत्मानुभावित होते हुए विराजे। बहुत से लोग आपस में यों कहने लगे-देवानुप्रियो! अरहंत अरिष्टनेमि सौराष्ट्र जनपद में पधारे हुए हैं। ___ तब युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने बहुत से लोगों को इस प्रकार वार्तालाप करते हुए . सुना। वे परस्पर मिले और आपस में कहने लगे - अरिष्टनेमि ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सौराष्ट्र पधारे हैं। अतः यह हमारे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि हम स्थविर भगवंत से पूछ कर भगवान् अरिष्टनेमि के वंदन नमन हेतु जाएँ। उन्होंने परस्पर यह स्वीकार किया-सभी को यह. उचित लगा। वे स्थविर भगवंत के पास आए। उन्हें वंदन-नमन कर निवेदन किया-आपसे अनुज्ञापित होकर हम अरहंत अरिष्टनेमि के वंदन हेतु जाना चाहते हैं। स्थविर भगवंत ने कहा - देवानुप्रियो! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। (२२३) तए णं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अब्भणुण्णाया समाणा थेरे भगवंते वंदति णमंसंति वं० २ ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति २ त्ता मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूईजमाणा जाव जेणेव हत्थकप्पे णयरे तेणेव उवागच्छंति० हत्थकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति। __ भावार्थ - युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डव मुनियों ने स्थविर भगवंत से आज्ञा प्राप्त की। उनको वंदन, नमस्कार किया और वहाँ से प्रस्थान किया। निरंतर मासखमण तपश्चरण पूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यावत् हस्तिकल्पनगर में पहुंचे। पहुँच कर नगर के बहिरवर्ती सहस्राम्रवन उद्यान में यावत् यथा कल्पनीय स्थान प्राप्त कर ठहर गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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