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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - शंख ध्वनि द्वारा दो वासुदेवों का सम्मिलन २३५ SECRECEDEOGORGEORECERESERECEKACIREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEK पर आरूढ होकर द्रौपदी की खोज में राजधानी अमरकंका में सत्वर पहुँचे। यह पद्मनाभ के साथ संग्राम करते हुए कृष्ण वासुदेव के शंख की ध्वनि हैं, जो तुम्हारे द्वारा बजाए जाने वाले शंख की ध्वनि की तरह इष्ट और कांत है। इस प्रकार वासुदेव के शंख की यह दूसरी ध्वनि है। (१९८) तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ णमंसइ वं० २ त्ता एवं वयासीगच्छामि णं अहं भंते! कण्हं वासुदेवे उत्तम पुरिसं मम सरिस पुरिसं पासामि। तए णं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवे एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा ३ जण्णं अरहंता वा अरहंतं पासंति चक्कवट्टी वा चक्कवहि पासंति बलदेवा वा बलदेवं पासंति वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति। तहवि य णं तुम कण्हस्स वासुदेवस्स लवण समुई मज्झंमज्झेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासिहिसि। - भावार्थ - तब कपिल वासुदेव ने तीर्थंकर मुनि सुव्रत को वंदन, नमन किया और निवेदन किया-भगवन्! मेरे मन में ऐसा आता है कि मैं कृष्ण वासुदेव के पास जाऊं और उनके दर्शन करूँ। इस पर तीर्थंकर मुनिसुव्रत ने कपिल वासुदेव से कहा - देवानुप्रिय! न कभी ऐसा हुआ है, न होता है और न होगा ही कि तीर्थंकर-तीर्थंकर से, चक्रवर्ती-चक्रवर्ती से, बलदेव-बलदेव से और वासुदेव-वासुदेव से परस्पर मिलते हों, एक दूसरे को देखते हों। ___फिर भी तुम लवण समुद्र के बीचों बीच गुजरते हुए कृष्ण वासुदेव के रथ की श्वेत पीत ध्वजा के अग्र भाग को देख सकोगे। (१६६) तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ णमंसइ वं० २ ता हत्थिखंधं दुरूहइ २ त्ता सिग्धं २ जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ २ त्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झमझेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाहिं धयग्गाइं पासइ २ त्ता एवं वयइ-एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेव लवण समुई मज्झं मज्झेणं वीईवयइ त्तिक? पंचयण्ण संखं परामुसइ २ मुहवाय पूरियं करेइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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