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__ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र xacccccccccccccccccccccccomodcccccccccccccccccccx
भावार्थ - कपिल वासुदेव ने तीर्थंकर मुनि सुव्रत को वंदन, नमन किया। वैसा कर हाथी पर आरूढ हुआ। शीघ्र ही लवण समुद्र के उस तट पर आया। लवण समुद्र के बीचों बीच गुजरते हुए रथ की श्वेत-पीत ध्वजा के अग्र भाग को देखा। देखकर वह बोला-वह मेरे तुल्य पुरुष कृष्ण वासुदेव हैं, जो लवण समुद्र के बीचों-बीच होते हुए जा रहे हैं। यों मन ही मन कहा एवं अपना पांचजन्य शंख लिया और मुख की वायु से पूरित किया-बजाया।
(२००) ___तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयण्णेइ २ त्ता पंचयण्णं जाव पूरियं करेइ। तए णं दोवि वासुदेवा संख सद्दसामायारिं करेंति।
शब्दार्थ - आयण्णेइ - सुना, सामायारिं - सम्मिलन।
भावार्थ - कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख को सुना। सुनकर उन्होंने भी अपना पांचजन्य शंख यावत् मुख की वायु से पूरित किया, बजाया। इस प्रकार दोनों ही वासुदेवों का शंख-ध्वनि के माध्यम से सम्मिलन हुआ।
(२०१) तए णं से कविले वासुदेवे जेणेव अवरकंका तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अवरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं जाव पासइ २ ता पउमणाभं एवं वयासीकिण्णं देवाणुप्पिया! एसा अवरकंका संभग्ग जाव सण्णिवइया? ___ भावार्थ - तदनंतर कपिल वासुदेव अमरकंका राजधानी में आया। उसने अमरकंका राजधानी के तोरण यावत् गोपुर, अट्टालिका आदि को नष्ट-भ्रष्ट देखा। तब वह पद्मनाभ से बोला - देवानुप्रिय! अमरकंका राजधानी यों भग्न यावत् ध्वस्त-विध्वस्त क्यों पड़ी है?
" (२०२) तए णं से पउमणाभे कविलं वासुदेव एवं वयासी-एवं खलु सामी! जंबुद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुब्भे परिभूय अवरकंका जाव सण्णिवाडिया।
भावार्थ - तब पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से कहा - स्वामी! जंबू द्वीपान्तरवर्ती भारत वर्ष
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