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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
वयासी - सेणूणं ते कविला वासुदेवा! ममं अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसद्दं आकण्णित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए- किं मण्णे जाव वियंभइ । से णूणं कविला वासुदेवा! अयमट्ठे समट्ठे ? हंता ! अस्थि ।
भावार्थ - कपिल वासुदेव को संबोधित कर तीर्थंकर मुनि सुव्रत ने इस प्रकार कहाकपिल वासुदेव! मेरे पास धर्म श्रवण करते समय शंख-ध्वनि सुनकर तुम्हारे मन में क्या ऐसा विचार आया कि धातकी खंड में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है। यह शंख-ध्वनि ऐसी है, मानो मेरे ही शंख की हों ।
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कपिल वासुदेव! क्या ऐसा ही भाव उठा । कपिल वासुदेव बोले- भगवं! सत्य है । मेरे मन में ऐसा ही भाव उत्पन्न हुआ।
(१६७)
तं णो खलु कविला! एवं भूयं वा भवइ वा भविस्सइ वा जण्णं एगखेत्ते एगजुगे एगसमए दुवे अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिंसु वा उपज्जिंति वा उप्पज्जिस्संति वा । एवं खलु वासुदेवा! जंबूद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हत्थिणाउराओ णयराओ पंडुस्स रण्णो सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी तव पउमणाभस्स रण्णो पुव्वसंगइएणं देवेणं अवरकंकं णयरिं साहरिया । तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठे छहिं रहेहिं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रण्णा सद्धिं संगामं संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इव इट्ठे कंते इहे वियंभ |
शब्दार्थ - जण्णं - जो नहीं ।
भावार्थ - हे कपिल ! एक ही क्षेत्र में, एक ही युग में, एक ही समय में दो तीर्थंकर या दो चक्रवर्ती या दो बलदेव या दो वासुदेव न कभी हुए हैं, न होते हैं, न होंगे।
वासुदेव कपिल! जंबू द्वीप के अंतर्गत भारत वर्ष में, हस्तिनापुर में पाण्डु राजा की पुत्रवधु, पांचों पाण्डवों की भार्या द्रौपदी देवी को तुम्हारे राजा पद्मनाभ के पूर्व भव के मित्र देव ने हरण कर राजधानी अमरकंका में उसके यहाँ पहुँचा दिया। तब कृष्ण वासुदेव पांचों पांडवों के साथ छह रथों
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