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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - द्रौपदी कृष्ण वासुदेव को सुपुर्द २३१ cococccccccccccccccccccccccccccccccKECKEKINEERENE करेमाणे ममं इह हव्वमाणेसि? तं एवमवि गए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! ण्हाय उल्लपडसाडए ओ(अव)चूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे अग्गाई वराई रयणाइं गहाय ममं पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयल० पायवडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला णं देवाणुप्पिया! उत्तम पुरिसा। शब्दार्थ - अवचूलग - नीचे लटकते हुए, वत्थणियत्थे - वस्त्रांचल का छोर, पणिवइयपैरों में पड़े हुए। भावार्थ - तदनंतर राजा पद्मनाभ ने जब राजधानी अमरकंका को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट देखा तब वह भयभीत होकर देवी द्रौपदी की शरण में पहुँचा। देवी द्रौपदी ने राजा पद्मनाभ को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्या तुम नहीं जानते, उत्तम पुरुष-शलाका पुरुष कृष्ण वासुदेव का अप्रिय करते हुए मेरा हरण करवा कर यहाँ ले आए। हुआ सो हुआ। देवानुप्रिय! अब तुम स्नान कर गीले वस्त्रों सहित, उत्तरीय को नीचे लटकाते हुए रानियों से परिवृत होकर, रत्नों की उत्तम भेंट लिए हुए, मुझे आगे कर कृष्ण वासुदेव के पास जाओ। हाथ जोड़कर उनके चरणों में गिरोउनकी शरण लो। देवानुप्रिय! उत्तम पुरुष शरणागत वत्सल होते हैं। विवेचन - कृष्ण वासुदेव के लिए इस सूत्र में जो उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है, वह विशिष्ट अर्थ का द्योतक है। जैन परंपरा में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव एवं नौ बलदेव-यों कुल तिरेसठ श्लाघ्य पुरुष माने गए हैं, जिन्हें शलाका पुरुष कहा जाता है। जैन साहित्य में संस्कृत में रचित 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित् महाकाव्यम्' आदि अनेक ग्रन्थ इन महापुरुषों को चरितनायक मान कर रचे गए हैं। ___एक ऐसी परम्परा भी है, जिनमें प्रतिवासुदेव नहीं गिने जाते। वहाँ चौवन महापुरुष माने जाते हैं। महाकवि पुष्पदंत रचित “चउवन्न महापुरिस चरिअं" आदि अनेक ग्रन्थ इस परंपरा में प्राप्त होते हैं। द्रौपदी कृष्ण वासुदेव को सुपुर्द (१६१) तए णं से पउमणाभे दोवईए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता पहाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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