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________________ २३२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र . පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපු जाव सरणं उवेइ, उवेत्ता करयल जाव एवं वयासी-दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं इट्टी जाव परक्कमे। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुजो २ एवं करणयाए त्तिक? पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई. देविं साहत्थिं उवणेइ। भावार्थ - राजा पद्मनाभ ने देवी द्रौपदी के इस कथन को स्वीकार किया। वह स्नानादि से निवृत्त हुआ यावत् वासुदेव की शरण में पहुँचा। हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि बांधे यों बोला - देवानुप्रिय! मैंने आपकी ऋद्धि और पराक्रम देखा! देवानुप्रिय! मैं आपसे क्षमायाचना करता हूँ यावत् आप मुझे क्षमा करें। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा। यों कह कर हाथ जोड़े हुए कृष्ण वासुदेव के चरणों में गिर पड़ा तथा द्रौपदी देवी को उनके हाथों में सौंप दिया। . (१६२) तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी-हं भो पउमणाभा! अप्पत्थियपत्थिया ४ किण्णं तुमं ण जाणसि मम भगिणिं दोवई देविं इह हव्वमाणमाणे? तं एवमवि गए णत्थि ते ममाहितो इयाणिं भयमत्थि - त्ति कटु पउमणाभं पडिविसजेइ० दोवई देविं गेण्हइ २ ता रहं दुरुहेइ २ त्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देविं साहत्थिं उवणेइ। भावार्थ - तब वासुदेव कृष्ण ने राजा पद्मनाभ से कहा - अरे मौत को चाहने वाले पद्मनाभ! क्या तूं नहीं जानता कि तू मेरी बहिन द्रौपदी देवी का अपहरण करवा कर यहाँ ले आया। खैर, हुआ सो हुआ। अब मुझ से तुम्हें कोई भय नहीं है। मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। यों कह कर उन्होंने पद्मनाभ को प्रतिविसर्जित किया-जाने का आदेश दिया। द्रौपदी देवी को लेकर रथ पर आरूढ़ हुए। पांच पांडवों के पास आए। द्रौपदी देवी को उन्हें हाथोंहाथ सौंप दिया। (१९३) तए णं से कण्हे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छहिं रहेहिं लवण समुदं मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहेवासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। भावार्थ - तदनंतर कृष्ण वासुदेव पांचों पांडवों के साथ छहों रथों पर आरूढ़ होकर लवण समुद्र के बीचों बीच होते हुए जंबूद्वीप-भारत वर्ष की ओर चल पड़े। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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