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शब्दार्थ - समइच्छमाणी - अतिक्रांत करती हुई, आगे बढ़ती हुई, चोइज्जमा
प्रेरित होती हुई । भावार्थ
तब वह उत्तम राजकन्या द्रौपदी हजारों राजाओं के बीच से आगे बढ़ती हुई, अपने पूर्वकृत निदान से अन्तःप्रेरित होती हुई, जहाँ पाँच पांडव थे, पहुँची और पंचरंगे फूलों से बने श्रीदामकाण्ड से उन्हें वेष्टित कर दिया। वैसा कर वह बोली- मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया।
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Sssssssssc
(१२५)
तए णं तेसिं (ताई) वासुदेव पामोक्खाणं बहूणि रायसहस्त्राणि महया २. सद्देणं उग्घोसेमाणाइं २ एवं वयंति - सुवरियं खलु भो! दोवइए रायवरकण्णाए त्तिकट्टु सयंवरमंडवाओ पडिणिक्खमंत २ त्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छंति।
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शब्दार्थ - सुवरियं - अच्छा वरण किया।
भावार्थ
हुए कहा
तब वासुदेव आदि सहस्रों राजाओं ने उच्च ध्वनि से बार-बार उद्घोषित करते श्रेष्ठ राजकन्या द्रौपदी ने सुंदर वरण किया है । यों कहकर वे राजा स्वयंवर - मंडप से बाहर निकले, अपने-अपने आवासों में चले गए।
(१२६)
तए ण धट्ठज्जुण्णेकुमारे पंच पंडवे दोवई रायवरकर्ण चाउग्घंटं आसरह
दुरूहेड़ २ त्ता कंपिल्लपुरं मज्झमज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसइ ।
भावार्थ
तदनंतर राजकुमार धृष्टद्युम्न ने पांचों पांडवों तथा राजकुमारी द्रौपदी को चार अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर बिठाया तथा कांपिल्यपुर के बीचों बीच होते हुए यावत् • अपने प्रासाद में प्रवेश किया।
पाणिग्रहण संस्कार
(१२७)
तए णं दुवए राया पंच पंडवे दोवई राय० पट्टयं दुरूहेड़ २ त्ता सेयपीयएहिं
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