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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन पंच-पांडव-वरण ▪▪▪▪☐☐☐☐☐☐☐☐☐¤¤¤ Jain Education International - SOOOOOOO *x*x*x*x*x*x*XXXX चमकीला दर्पण लिया। उसमें जिन-जिन राजाओं के चेहरे प्रतिबिंबित होते थे, उन्हें वह लालित्यपूर्ण संकेत के साथ राजकुमारी को बतलाती । वह स्फुट, विशद, सस्वर, गंभीर, मधुर वाणी में निपुण थी। उन सभी राजाओं के मातापिता, वेश, सामर्थ्य, पराक्रम, कांति, बहुविध शास्त्र-ज्ञान, माहात्म्य, रूप, यौवन, लावण्य, कुल, शील की ज्ञायिका होने से, उनका कीर्त्तन - सम्यक् आख्यान करने लगी । (१२३) पढम ताव वण्हिपुंगवाणं दस दसार (वर) वीर पुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तुसयसहस्समाणावमद्दगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूवजोव्वणगुणलावण्णकित्तिया कित्तणं करे । तओ पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं भणइ य सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हिययदइओ । शब्दार्थ - वण्हिपुंगवाणं - वृष्णिवंश में प्रधान, माणावमद्दगाणं मान-मर्दन करने वाले, जायवाणं - यादवों का, दइओ - प्रिय । भावार्थ:- उनमें से सबसे पहले यावत् वृष्णि वंशियों में प्रधान समुद्रविजय आदि दश दशाह का आख्यान किया। वह बोली- ये तीनों लोकों में अत्यंत बलशाली, लाखों शत्रुओं के मानमर्दक, भवसिद्धिक पुरुषों में उत्तम कमल सदृश, अपनी सहज तेजस्विता से देदीप्यमान, बल, वीर्य रूप, यौवन, गुण, लावण्यशाली हैं। इसके बाद उसने उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया। वह बोली - हे सौभाग्यशालिनी ! उत्तम गंध हस्ती सदृश इन वृष्णिपुंगवों एवं यादवों में से जो तुम्हारे मन को प्रिय हो, उसका वरण करो । पंच पांडव - वरण (१२४) - १६७ - तए णं सा दोवई रायवरकण्णगा बहूणं रायवरसहस्साणं मज्झंमज्झेणं समइच्छमाणि २ पुव्यकंयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्धवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ २ ता एवं वयासी - एए णं मए पंच पंडवा वरिया। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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