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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ●●●●●●●ce
कृष्ण का पांचाल की ओर प्रस्थान
(६३)
तणं से कहे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगय जाव पच्चप्पिणंति ।
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शब्दार्थ - अभिसेक्कं - पट्टाभिसिक्तं - मुख्य ।
भावार्थ - तदुपरांत कृष्ण वासुदेव ने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही मेरे प्रमुख हस्तिरत्न को तैयार करो। हाथी, घोड़े यावत् रथ पदाति रूप चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित होने हेतु कहो और मुझे वापस सूचित करो। कौटुंबिक पुरुषों ने कृष्ण वासुदेव के आदेशानुरूप व्यवस्था कर, वापस उन्हें सूचित किया ।
(१४)
तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरि कूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे । तए णं से कहे वासुदेव समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारेहिं जाव अणंगसेणापामोक्खाहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहि सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्ढीए जाव वेणं बारवई णयरिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ २ त्ता सुरट्ठाजणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छ. २ त्ता पंचाल जणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे यरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
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भावार्थ - कृष्ण वासुदेव स्नानागार में गए। मोतियों से सज्जित, गवाक्षयुक्त उत्तम स्नानघर में विधिवत् स्नान किया । भली भांति तैयार हुए तथा अंजनगिरी - श्यामरंग युक्त उच्च पर्वत शिखर के सदृश गजराज पर सवार हुए।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय आदि दस दशार्ह यावत् अननसेना आदि सहस्रों गणिकाओं से घिरे हुए समस्त ऋद्धि, वैभव एवं शान के साथ यावत् वाद्य ध्वनि पूर्वक द्वारिका के बीच से निकले। सौराष्ट्र जनपद के मध्य होते हुए प्रदेश की सीमा पर पहुँचे। वहाँ से पाचाल
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जनपद के बीचों बीच होते हुए कांपिल्यपुर नगर की ओर जाने को उद्यत हुए ।
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