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________________ १३८ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र accccccccccccccccccccccccccccccccccccccccmacocock ___ भावार्थ - उन ब्राह्मणों ने परस्पर यह बात स्वीकार की। तदनुसार वे हर रोज एक दूसरे के घर में प्रचुर मात्रा में चतुर्विध आहार बनवाने लगे यावत् भोजन का आनंद लेने लगे। खारे, कुडुवे तूंबे का शाक तए णं तीसे णागसिरीए माहणीए अण्णया (कयाइ) भोयणवारए जाए यावि होत्था। तए णं सा णागसिरी विपुलं असणं ४ उवक्खडेवेइ २ ता एगं महं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडावेइ एगं बिंदुयं करयलंसि आसाएइ २ तं खारं कडुयं अखज्जं (अभोज्ज) विसन्भूयं जाणित्ता एवं वयासीधिरत्थु णं मम णागसिरीए अधण्णाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणिंबोलियाए जीए णं मए सालएइ बहुसंभारसंभिए णेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदव्वक्खए (णं) णेहक्खए य कए। शब्दार्थ - सालइयं - शरद् ऋतु में उत्पन्न या प्रचुर रस युक्त, तित्तालाउयं - खारा तूंबा, बहुसंभारसंजुत्तं - मसालों से युक्त, णेहावगाढं - घृतलिप्त, दूभगसत्ताए - व्यर्थ परिश्रम करने वाली, दूभगणिंबोलियाए - निम्बोली की तरह अनादरणीय। ____ भावार्थ - ब्राह्मण पत्नी नागश्री की एक बार भोजन की बारी आई। उसने प्रचुर चतुर्विध आहार तैयार किए। फिर उसने एक बड़ा रसयुक्त तूंबा लिया। उसमें बहुत से मसाले डालकर, उसका घी में परिपाक किया। उसकी एक बूंद हथेली पर लेकर उसे चखा तो ज्ञात हुआ, यह खारा, कडुआ, अखाद्य, अभोज्य एवं विषवत् है, यह जानकर वह मन ही मन कहने लगी, मुझ नागश्री को धिक्कार है। मैं अधन्या, अपुण्या, व्यर्थ परिश्रम करने वाली हूँ। नीम की निंबोली की तरह अनादरणीय हूँ, जिसने तूंबे का बहुत से मसालों और घृत के साथ परिपाक किया। अनेक मसाले एवं घृत व्यर्थ ही नष्ट किया। तं जइ णं ममं जाउयाओ जाणिस्संति तो णं मम खिंसिस्सति। तं जाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति ताव मम सेयं एयं सालइयं तित्तालाउयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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