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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(५५)
तए णं तेयलिपुरे णयरे अहासण्णिहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि य देवदुंदुभीओ समाहयाओ दसद्धवण्णे कुसुमे णिवाइए दिव्वे गीयगंधव्वणिणाए क यावि होत्था।
शब्दार्थ - अहासण्णिहिएहिं - निकटवर्ती, समाहयाओ - बजाई गई, णिवाइए निपातित किए - वर्षाए ।
भावार्थ - तब तेतली पुत्र नगर के समीपवर्ती वानव्यंतर देवों और देवियों ने देव-दुंदुभियाँ बजाते हुए पांच वर्ण के पुष्प बरसाते हुए दिव्य गीत-संगीत पूर्वक केवलज्ञान विषयक महोत्सव मनाया। कनकध्वज द्वारा क्षमायाचना
(५६)
तए णं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे एवं वयासी- एवं खलु तेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पव्वइए तं गच्छामि णं तेयलिपुत्तं अणगारं वंदामि णमंसामि वं० २ त्ता एयमहं विणएणं भुज्जो २ खामेमि । एवं संपेहेइ २ त्ता ण्हाए चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेयलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तेयलिपुत्तं अणगारं वंदइ णमंसड़ वं० २ ता एयमट्टं च (णं) विणएणं भुज्जो २ खामेइ (२) णच्चासण्णे जाव पज्जुवासइ ।
शब्दार्थ - णच्चासण्णे न अति निकट ।
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भावार्थ - राजा कनकध्वज को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वह बोला-तेतली पुत्र मेरे के द्वारा अवहेलना किए जाने पर, मुंडित होकर प्रव्रजित हो गया । इसलिए मैं अनगार तेतली पुत्र पास जाऊँ, वंदन नमस्कार कर मेरे द्वारा किए गए विपरीत व्यवहार के लिए विनय पूर्वक बारबार क्षमायाचना करूँ।
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यों सोचकर उसने स्नान किया, तैयार हुआ और चतुरंगिणी सेना के साथ प्रमदवन उद्यान में आया । तेतलीपुत्र अनगार के पास पहुँचा । उनको वंदन, नमन कर विनय पूर्वक अपने व्यवहार के लिए बार-बार क्षमायाचना की । न उनके अति निकट यावत् न उनसे अधिक दूर, उनके सान्निध्य में बैठा ।
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