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तेतली पुत्र नामक चौदहवां अध्ययन
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केवली प्ररूपित धर्म का बोध कराओ तो मैं तुम्हें दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करूँ । यदि तुम मुझे आकर प्रतिबुद्ध न करो तो मैं तुम्हें इस प्रकार की आज्ञा नहीं देता ।
इस पर पोट्टिला ने तेतली पुत्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।
पोहिला प्रव्रजित (३६)
तणं तेयलिपुत्ते विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ २ त्ता मित्तणाइ जाव आमंतेइ जाव सम्माणेइ २ पोट्टिलं हायं जाव पुरिस सहस्सवाहणीयं सीयं दुरूहित्ता मित्तणाइ जाव (सं) परिवुडे सव्विड्डिए जाव रखेणं तेयलिपुरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीयाओ पच्चोरुहइ २ त्ता पोट्टिलं पुरओ कट्टु जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वंदइ णमंसइ, वं० २ त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पोट्टिला भारिया इट्ठा ५ एस णं संसारभउव्विगा जाव पव्वइत्तए, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि । अहासुहं मा पडिबंधं करेह ।
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शब्दार्थ - सिस्सिणिभिक्खं - शिष्या रूप भिक्षा ।
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पोट्टिला प्रव्रजित
भावार्थ तब तेती पुत्र ने विपुल मात्रा में चतुर्विध आहार तैयार करवाया । मित्र जातीय जन यावत् स्वजन को आमंत्रित किया यावत् सत्कारित, सम्मानित किया ।
ऐसा करने के बाद पोट्टिला को स्नान करवाया। सभी अलंकारों से विभूषित करवाया तथा एक सहस्र पुरुषों द्वारा वहनीय शिविका पर आरूढ करा कर वह स्वजन जातीय जन यावत् मित्र संबंधी जन आदि से घिरा हुआ, अत्यंत ऋद्धि-वैभव के साथ यावत् गाजे-बाजों के साथ, तेतलीपुर के बीचों-बीच से निकलता हुआ, आर्या सुव्रता जहाँ विराजित थीं, उस स्थान पर आया। पोट्टिला को शिविका से उतारा। उसे आगे कर वह आर्या सुव्रता के समीप पहुँचा और वंदन, नमन कर कहने लगा-देवानुप्रिये! यह मेरी प्रिय पत्नी पोट्टिला है । यह संसार के भय से उद्विग्न है यावत् आपसे दीक्षा लेना चाहती है । देवानुप्रिय ! मैं शिष्या के रूप में आपको भिक्षा दे रहा हूँ। आर्या सुव्रता ने तेतली पुत्र से कहा - जिससे तुम्हें सुख मिले, वैसा करो, किन्तु इसमें विलंब मत करो।
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