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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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__(३७)
तए णं सा पोटिला सुव्वयाहिं अजाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ट० उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ २ ता सयमेव आभरण मल्लालंकार ओमुयइ २ त्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ २ ता जेणेव सुव्वयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वंदइ णमंसइ वं० २ त्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एक्कारस अंगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ २ त्ता भासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाई आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा।
शब्दार्थ - आलित्ते - आदीप्त-जल रहा है।
भावार्थ - आर्या सुव्रता द्वारा यों कहे जाने पर पोट्टिला बहुत प्रसन्न हुई। उत्तर पूर्व दिशा भाग में-ईशान कोण में जाकर अपने आभरण, माला, अलंकार उतार दिए तथा स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया एवं आर्या सुव्रता के निकट आकर वंदन, नमस्कार किया और बोली-यह संसार दुःखों की अग्नि से जल रहा है। मैं प्रव्रज्या स्वीकार कर इससे छूटना चाहती हूँ।
इत्यादि वर्णन देवानंदा की दीक्षा विषयक वर्णन से ग्राह्य है जो भगवती सूत्र में आया है। यावत् पोट्टिला ने दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया। एक मासिक संलेखणा द्वारा साठ भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करते हुए, आलोचना, प्रतिक्रमण कर, समाधि पूर्वक उसने यथाकाल देहत्याग किया एवं किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुई। कनकरथ की मृत्यु : उत्तराधिकारी की गवेषणा
. (३८) .. तए णं से कणगरहे राया अण्णया कयाइ काल धम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तए णं राईसर जाव णीहरणं करेंति २ ता अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया कणगरहे राया रजे य जाव पुत्ते वियंगित्था। अम्हे णं देवाणुप्पिया!
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