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_ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 2000noonణంంంంంంంంంంంంంంంంంంం जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए० एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुव्विं इट्टा ५ आसि इयाणिं अणिट्ठा ५ जाव परिभोगं वा, तं सेयं खलु मम सुव्वयाणं अजाणं अंतिए पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ २ त्ता कल्लं पाउ० जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुव्वयाणं अजाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अब्भणुण्णाया पव्वइत्तए।
भावार्थ - तत्पश्चात् पोट्टिला अर्द्धरात्रि के समय कुटुंब विषयक चिंता में जाग रही थी तो उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ, मैं पहले तेतली पुत्र के लिए इष्ट, कांत, मनोहर, प्रिय, मनोज्ञ थी। इस समय मैं अनिष्ट, अकांत, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ हो गई हूँ। यावत् मुझे देखने
और मेरे साथ सुख भोगना तो दूर की बात है, वह मेरा नाम तक नहीं सुनना चाहता। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं आर्या सुव्रता के पास दीक्षा स्वीकार कर लूँ। यों उसके मन में भावोद्वेलन होने लगा। ___ दूसरे दिन प्रातःकाल होने पर वह तेतली पुत्र के पास गई। हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि घुमाते हुए, वह बोली-देवानुप्रिय! मैंने आर्या सुव्रता के पास धर्म-श्रवण किया है यावत् मैं आपसे आज्ञा प्राप्त कर उनसे दीक्षित होना चाहती हूँ। अमात्य द्वारा सशर्त प्रव्रज्या की अनुज्ञा
(३५) ... तए णं तेयलिपुत्ते पोटिलं एवं वयासी-एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! मुंडा पव्वइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजिहिसि तं जइ णं तुमं देवाणुप्पिए! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म केवलिपण्णत्ते धम्मे बोहिहि तो हं विसज्जेमि, अह णं तुम ममं ण संबोहेसि तो ते ण विसजेमि। तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेइ।
शब्दार्थ - बोहिहि - प्रतिबोध दो-समझाओ, विसज्जेमि - विसर्जित करूँ-आज्ञा हूँ।
भावार्थ - तेतलीपुत्र ने पोट्टिला को इस प्रकार कहा - देवानुपिये! यदि तुम मुण्डित, प्रव्रजित होकर, आयुष्यपूर्ण कर, किसी भी देवलोक में जन्म लो तो उस देवलोक से आकर मुझे
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