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तेतली पुत्र नामक चौदहवां अध्ययन - पोट्टिला से विरक्ति १०५ ScoocomaaacancikcanceracocceemaaaaaEEEEEEEEEEEEEEE वरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए ४ जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु अहं तेयलिस्स पुव्विं इट्ठा ५ आसि इयाणिं अणिट्टा ५ जाया। णेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम णामं जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ।
भावार्थ - किसी समय पोट्टिला तेतलीपुत्र को (कारण विशेषवश) अनिष्ट, अप्रिय, अमनोरम, अकांत, अमनोहर, अप्रीतिकर हो गई। यहाँ तक कि तेतलीपुत्र को उसका नामगोत्र भी सुनना अच्छा नहीं लगता। उसकी ओर देखना या उसके साथ सुख भोगने की तो बात ही क्या?
___ पोट्टिला ने पति का यह व्यवहार देखा तो, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ - मैं पहले तेतलीपुत्र को इष्ट, प्रिय, मनोरम थी किंतु इस समय अमनोहर, अकांत, अप्रीतिकर हो गई हूँ। तेतलीपुत्र मेरा नाम तक नहीं सुनना चाहता यावत् सुख-भोग की तो बात ही क्या?
इस प्रकार उसका मन टूट गया यावत् वह निराश हो गई और हथेली पर मुँह रखे आर्तध्यान करने लगी।
(२७) - तए णं तेयलिपुत्ते पोटिलं ओहयमण संकप्पं जाव झियायमाणं पासइ २ त्ता एवं वयासी - माणं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुम णं मम महाणसंसि विपुलं असणं ४ उवक्खडावेहि २ ता बहूणं समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि। तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स अमच्चेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट० तेयलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेइ २ ता कल्लाकल्लिं महाणसंसि विपुलं असणं ४ जाव दवावेमाणी विहरइ। ___ भावार्थ - तेतलीपुत्र ने जब देखा कि पोट्टिला का मन बड़ा खिन्न एवं निराश है यावत् आर्त्तध्यानरत है तो उसने उससे कहा - देवानुप्रिये! तुम निराश मत बनो। तुम मेरी पाक (भोजन) शाला में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य तैयार करवाओ तथा बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों यावत् याचकों को स्वयं देती रहो, दिलवाती रहो। ____ तेतलीपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर पोट्टिला प्रसन्न एवं परितुष्ट हुई। उसने उसका कथन स्वीकार किया एवं भोजनशाला में चतुर्विध आहार तैयार करवाकर यावत् अपेक्षित जनों को देती रही, दिलवाती रही।
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