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________________ तेतली पुत्र नामक चौदहवां अध्ययन - पाणिग्रहण का प्रस्ताव ९७ ESCECOGERaccesscccccccccDECECcccccccccccccccccccx हितप्रद मानते हो तो तेतलीपुत्र के लिए अपनी पुत्री पोट्टिला को देना स्वीकार करो और बतलाओ इसके लिए क्या शुल्क-द्रव्य देय है? . विवेचन - तेतली-पुत्र राजा का मंत्री था। शासन सूत्र उसके हाथ में था। दूसरी ओर मूषिकारदारक एक सामान्य स्वर्णकार था। तेतली-पुत्र उसकी कन्या पर मुग्ध हो जाता है मगर मात्र उसे अपने भोग की सामग्री नहीं बनाना चाहता-पत्नी के रूप में वरण करने की इच्छा करता है। नियमानुसार उसकी मंगनी के लिए अपने सेवकों को उसके घर भेजता है। सेवक मूषिकारदारक के घर जाकर जिन शिष्टतापूर्ण शब्दों में पोट्टिला कन्या की मांगनी करते हैं, वे शब्द ध्यान देने योग्य हैं। राजमंत्री के सेवक न रौब दिखलाते हैं, न किसी प्रकार का दबाव डालते हैं, न धमकी देने का संकेत देते हैं। वे कलाद के समक्ष मात्र प्रस्ताव रखते हैं और निर्णय उसी पर छोड़ देते हैं। कहते हैं - 'यह सम्बन्ध यदि तुम्हें उचित प्रतीत हो, तेतली-पुत्र को यदि इस कन्या के लिए योग्य पात्र मानते हो और दोनों का सम्बन्ध यदि श्लाघनीय और अनुकूल समझते हो तो तेतली-पुत्र को अपनी कन्या प्रदान करो।' ___ निश्चय ही सेवकों ने जो कुछ कहा, वह राजमंत्री के निर्देशानुसार ही कहा होगा। इस वर्णन से तत्कालीन शासकों की न्यायनिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। शुल्क देने का जो कथन किया गया है, वह उस समय की प्रचलित प्रथा थी। इसके सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। (१०) ___ तए णं कलाए २ ते अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी - एस चेव णं देवाणुप्पिया! मम सुक्के जण्णं तेयलिपुत्ते मम दारियाणि मित्तेणं अणुग्गहं करेइ। ते ठाणिज्जे पुरिसे विपुलेणं असणेणं ४ पुप्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ० पडिविसज्जेइ। भावार्थ - तदनंतर स्वर्णकार मूषिकादारक ने अमात्य के व्यक्तिगत आंतरिक पुरुषों से कहा - देवानुप्रियो! मैं इसे ही शुल्क मानता हूँ, जो तेतलीपुत्र मेरी पुत्री को अपने लिए मांगने के निमित्त मुझ पर अनुग्रह कर रहे हैं। इस प्रकार कहकर उसने उन पुरुषों को विपुल अशनपान-खाद्य-स्वाद्य, वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, माला, अलंकार आदि द्वारा सत्कारित-सम्मानित कर विदा किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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