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________________ ८४. - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र saccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccx भावार्थ - राजगृह नगर में इस प्रकार की घोषणा को सुनकर बहुत से वैद्य यावत् विविध प्रकार के चिकित्सक अपने पुत्रों सहित अपने हाथ में शल्य क्रियोपकरण, चर्मोपकरण, वटिकाएं, तीक्ष्ण औषधियाँ, कूट-पीस कर-पकाकर बनाई हुई दवाइयाँ लिए हुए, अपने-अपने घरों से रवाना हुए। राजगृह नगर के बीचों-बीच होते हुए मणिकार नंद के घर पहुँचे। नंद के शरीर को देखा, रोगों के कारण आदि के संबंध में पूछताछ की। उन्होंने बहुत प्रकार के औषध लेपन, उबटन, घृत, पान, वमन, विरेचन, सेचन, तप्त लोह से देहदाहांकन, मल शुद्धि द्वारा गुदा मार्ग से तैल आदि पहुँचाकर एनीमा लगा कर, नाड़ी बंधन, नाड़ी वैध, चर्मच्छेदन, चर्मतक्षण, तेलमालिश, पुट पाक औषधियों, वृक्षों की छाल, लताएँ, मूल, कंद, पत्ते, फूल, बीज आदि द्वारा चिकित्सा का पूरा प्रयास किया किन्तु उन सोलह रोगों में से एक भी रोग को मिटा नहीं पाए। विवेचन - प्राचीन काल में आयुर्वेद-चिकित्सा पद्धति कितनी विकसित थी, चिकित्सा के कितने रूप प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट विदित किया जा सकता है। आयुर्वेद का इतिहास लिखने में यह उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। आधुनिक ऍलोपैथी के लगभग सभी रूप इसमें समाहित हो जाते हैं, यही नहीं बल्कि अनेक रूप तो ऐसे भी हैं जो आधुनिक पद्धति में भी नहीं पाये जाते। इससे स्पष्ट है कि आधुनिक यंत्रों के अभाव में भी । आयुर्वेद खूब विकसित हो चुका था। देहावसान : मेंढक के रूप में पुनर्जन्म . (२२) .... तए णं ते बहवे वेज्जा य ६ जाहे णो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोयायंकाणं एगमवि रोयायंकं उवसामित्तए ताहे संता तंता जाव पडिगया। तए णं णंदे तेहिं सोलसेहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे णंदाए पोक्खरिणीए मुच्छिए ४ तिरिक्खजोणिएहिं णिबद्धाउए बद्धपएसिए अदृदुहटवसट्टे कालमासे कालं किच्चा णंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिंसि ददुरत्ताए उववण्णे। शब्दार्थ - णिबद्धाउए - आयुष्य बंध किया, बद्धपएसिए - प्रदेश बंध हुआ। भावार्थ - बहुत से वैद्य, अनुभवी चिकित्सक, चिकित्सा योगों के अनुभवी प्रयोक्ता, जब नंद के सोलह रोगों में से एक भी रोग को उपशांत नहीं कर सके तो वे शांत, खिन्न यावत् निराश और हतोत्साह होकर, जहाँ-जहाँ से आए थे, वहीं वापस लौट गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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