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________________ प्रथम अध्ययन - राजा द्वारा सांत्वना .... बोली - स्वामिन्! उस उत्तम महास्वप्न को देखने के पूरे तीन माह बाद मुझे असमय में मेघों को देखने का दोहद उत्पन्न हुआ। मैं सोचने लगी वे माताएँ धन्य हैं, कृतार्थ हैं, जो वैभार पर्वत की तलहटी में घूमती हुई, अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। मैं भी उसी प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करूँ, तो मैं धन्य हो जाऊँ। स्वामिन्! अपने इस प्रकार के दोहद के पूर्ण न होने से मेरे मन में चिंता और विषाद उत्पन्न हुआ, मैं आर्तध्यान करने लगी। मेरी इस व्यथा और व्याकुलता का यही कारण है। राजा द्वारा सांत्वना (५७) तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म धारिणिं देवि एवं वयासी - मा णं तुम देवाणुप्पिए! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुब्भं अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ तिकटु धारिणिं देविं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वग्गूहि समासासेइ २ ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य चउव्विहाहिं बुद्धीहि अणुचिंतेमाणे २ तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहय-मणसंकप्पे जाव झियायइ।. शब्दार्थ - मणोरहसंपत्ती - मनोरथ पूर्ति, समासासेइ - भलीभाँति आश्वासन देता है, सण्णिसणे - बैठा, आएहि - साधनों द्वारा, उप्पत्तियाहि - औत्पातिकी, वेणइयाहि - वैनयिकी, कम्मियाहि - कार्मिकी, पारिणामियाहि - पारिणामिकी, चउविहाहिं - चार प्रकार की, अणुचिंतेमाणे - अनुचिंतन करता हुआ-बार बार विचारता हुआ, ठिइ-स्थिति, अविंदमाणेप्राप्त नहीं करता हुआ-नहीं जानता हुआ, ओहयमणसंकप्पे - अपहतमनः संकल्प-हतोत्साह। भावार्थ - राजा श्रेणिक ने रानी धारिणी से यह बात सुनी तब बोला - देवानुप्रिये! तुम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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