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प्रथम अध्ययन - श्रेणिक का उपस्थान शाला में आगमन
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प्रातःकालीन सूर्य की लालिमा को जिन रक्तवर्णमय पदार्थ, पुष्प तथा शुक, कोकिला, एवं कपोत आदि पक्षियों के नेत्र मुख आदि से उपमित किया है, वह बहुत ही चमत्कारिक है।
इस काव्यात्मक सौंदर्य पूर्ण विवेचन का लक्ष्य पाठकों को आगमों के अध्ययन में रुचिशील बनाना तथा त्याग, वैराग्य एवं संयममय जीवन की ओर प्रेरित करना है।
यहाँ प्रयुक्त फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि में 'कमल' शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है। व्याकरण महाभाष्य में शब्दों के लिए “शब्दाः कामदुधाः" ऐसा उल्लेख हुआ है। कामधेनु की ज्यों शब्द अनेक अर्थों को देने में सक्षम होते हैं। इस दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत एवं पालि साहित्य अत्यंत समृद्ध है। जहाँ एक ही शब्द का विविध अर्थों में प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
सामान्यतः कमल का अर्थ 'पद्म' (सरोवर में विकसित पुष्प विशेष). होता है, जो साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। मुख, नेत्र, चरण, हाथ आदि को प्रायः इससे उपमित किया जाता है। .. यहाँ यह जानने योग्य है - यदि कमल शब्द नपुंसकलिङ्ग में प्रयुक्त हो (कमलं) तो उसका
अर्थ पद्म या पुष्प विशेष होता है। यदि उसी का प्रयोग पुल्लिङ्ग (कमलः) में हो तो वह मृग विशेष - काले मृग का बोधक होता है। यद्यपि इस समासयुक्त पद में यह लिङ्ग-भेद दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि समास के अन्तर्वर्ती पदों में लिङ्ग, विभक्ति और वचन का लोप होता है किंतु पूर्वापर प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ 'कमल' का मृग के लिए प्रयोग किया है। अर्थात् 'कमल' का अर्थ 'पद्म' तथा 'कमलः' * का अर्थ मृग विशेष होता है।
(२६) - उठेइत्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ २त्ता अणेगवायाम-जोग-वग्गण-वामद्दण-मल्ल-जुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते सयपागेहिं सहस्सपागेहिं सुगंधवर-तेल्लमाइएहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विहंणिज्जेहिं सव्विंदिय-गाय पल्हायणिज्जेहिं अब्भंगएहिं अब्भंगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमाल-कोमलतलेहिं, पुरिसेहिं, छेएहिं, दक्खेहिं , पढेंहिं, कुसलेहि, मेहावीहिं णिउणेहिं णिउण-सिप्पोवगएहिं जियपरिस्समेहिं अन्भंगण-परिमद्दणुव्वट्टण
* संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी (वामन शिवराम आप्टे) पृष्ठ ३३५
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