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प्रथम अध्ययन - स्वप्न फल-संसूचन
अस्पष्ट रहता है। जानने का क्रम आगे बढ़ता है। ज्ञेय पदार्थ के अर्थ या स्वरूप के संबंध में जिज्ञासु विशेष रूप से आलोचन-पर्यालोचन करता है, उसे 'ईहा' कहा जाता है। यहाँ पदार्थ के स्वरूप-बोध के संबंध में पर्यालोचनात्मक विशेष चेष्टा रहती है। पदार्थ का स्वरूप निर्णीत या निश्चित नहीं हो पाता। तत्पश्चात् जिज्ञासु मनन पूर्वक अपनी बुद्धि द्वारा ज्ञेय पदार्थ के स्वरूप का निश्चय-निर्णय करता है। इसे 'अवाय' कहा जाता है। फिर वह निर्णीत ज्ञान स्मृति में संस्कार रूप में अवस्थित हो जाता है, इसे 'धारणा' कहा जाता है। यहाँ राजा श्रेणिक द्वारा जिज्ञासित स्वप्न विषयक ज्ञान प्राप्त करने का इसी प्रकार का-सहजतया अवग्रह, ईहा और अवाय पूर्वक प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है।
स्वप्न फल-संसूचन
(२१) उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिडे, कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिवें, सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दि→ आरोग्ग-तुहि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल-कारए णं तुमे देवी! सुमिणे दिढे अत्थलाभो ते देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए! रज्जलाभो भोगलाभो सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं अम्हं कुलकेऊं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवंडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलणंदिकरं कुलजसकर कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं पयाहिसि।
शब्दार्थ - दिढें - देखा, आरोग्ग - अरुग्णता-स्वस्थता, तुट्ठि - तुष्टि-परितोष, दीहाउयदीर्घायुष्य-लम्बी आयु, अत्थलाभो - अर्थ-लाभ-इच्छित पदार्थ की प्राप्ति, रज्जलाभो - राज्य लाभ, सोक्खलाभो - सौख्य-लाभ-सुख प्राप्ति, णवण्हं मासाणं- नौ महीने, बहुपडिपुण्णाणंसर्वथा परिपूर्ण, राइंदियाणं - रात-दिन, वीइक्कताणं - व्यतीत होने पर, अम्हं - हमारे, कुलकेऊ - कुलकेतु-कुल-कीर्ति को ध्वजा के सदृश फहराने वाले, कुलदीवं - कुल-दीपक
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