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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र . शब्दार्थ - के - क्या, फलवित्तिविसेसे - फलवृत्ति विशेष-विशिष्ट फल। भावार्थ - देवानुप्रिय! जब मैं सुसज्जित सुन्दर शय्या पर सो रही थी, मैंने स्वप्न में एक भव्य, प्रशस्त श्वेत हस्ती को अपने मुख में प्रवेश करते देखा, मैं तत्काल जाग गई। देवानुप्रिय! इस शुभ स्वप्न का क्या विशेष फल होगा? बतलाएँ। • (२०) तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए धाराहय-णीव-सुरभि-कुसुम-चुंचु-मालइयतणू ऊससिय. रोमकूवे तं सुमिणं उग्गिण्हइ २ त्ता ईहं पविसइ २ ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धि विण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हियय-पल्हाय-णिज्जाहिं मिउमहुर-रिभियगंभीर-सस्सिरीयाहिं वग्गूहि अणुवूहेमाणे २ एवं वयासी। ___ शब्दार्थ - णीए - कंदब वृक्ष, चुंचुमालइय - पुलकित, तणू - तन-शरीर, . ऊससियरोमकूवे - उच्छ्वसित रोमकूप-रोमांचित, उग्गिण्हइ - अवगृहीत करता है-सामान्यतः अर्थ ग्रहण करता है, ईहं - अर्थ पर्यालोचनामुखी चेष्टा, पविसइ - प्रवेश करता है-अन्तः प्रविष्ट होता है, साभाविएणं - स्वाभाविक, मइपुव्वएणं - मतिपूर्वक, बुद्धिविण्णाणेणं - बुद्धि विज्ञान से-बुद्धि के विशिष्ट ज्ञान से, अत्थोग्गहं - अर्थोद्ग्रह-अर्थ का निश्चय, मिउ - मृदु-कोमल, रिभिय - मधुर स्वर, वग्गूहिं - वाणी द्वारा, अणुवूहेमाणे- प्रशंसा करते हुए। . भावार्थ - राजा श्रेणिक रानी धारणी का यह कथन सुनकर बहुत हर्षित, सन्तुष्ट, आनन्दित और प्रसन्न हुआ। हर्ष के कारण उसका हृदय बड़ा प्रफुल्लित हुआ। वह पुलकित एवं रोमांचित हो उठा। उसने स्वप्न पर पहले सामान्य रूप से विचार किया फिर उसके अर्थ पर पर्यालोचन किया। तत्पश्चात् अपनी स्वाभाविक विशिष्ट बुद्धि द्वारा उस स्वप्न का अर्थ-फल विषयक निश्चय किया। ऐसा कर उसने रानी के हृदय में आह्लाद उत्पन्न करने वाली मृदुल, मधुर एवं गंभीर वाणी द्वारा इस प्रसंग की बार-बार प्रशंसा करते हुए कहा। विवेचन - मतिज्ञान द्वारा किसी पदार्थ को जानने का एक विशेष क्रम है। सबसे पहले जिज्ञासु ज्ञेय पदार्थ को सामान्य रूप में अवगृहीत करता है, उसे ग्रहण करता है। उसे 'अवग्रह' कहा जाता है। यह पदार्थ विषयक ज्ञान का सामान्य रूप है। इसमें ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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