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प्रथम अध्ययन - जंबूस्वामी की जिज्ञासा
प्राप्त, पुरिसुत्तमेणं - पुरुषोत्तम - विशिष्ट अतिशयों से सम्पन्न, पुरिससीहेणं - पुरुषसिंह - आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश, पुरिसवरपुंडरीएणं पुरुषवर पुंडरीक - सर्व प्रकार की मलिनता से रहित, पुरिसवर-गंधहत्थिणा - पुरुषवर गन्धहस्ती - पुरुषों में श्रेष्ठ गंध हस्ती के समान, लोगुत्तमेणंलोकोत्तम, लोगणाहेणं - लोकनाथ जगत् के प्रभु, लोगहिएणं - लोक का हित करने वाले, अथवा लोकप्रतीप-लोक - प्रवाह के प्रतिकूलगामी- -अध्यात्म-पथ पर गतिशील, लोगपज्जोयगरेणंलोक प्रद्योतकर-लोक में धर्म का उद्योत - प्रकाश फैलाने वाले, अभयदपणं अभयप्रद, सरणदएणं- शरणप्रद, चक्खुदएणं - चक्षुः प्रद- अन्तर्र्चक्षु खोलने वाले, मग्गदएणं - मार्ग प्रद, बोहिदएणं - बोधिप्रद-संयम जीवन मूलक बोधि प्रदान करने वाले, धम्मदएणं - धर्मप्रद, धम्मदेसएणं - धर्मोपदेशक, धम्मणायगेणं - धर्मनायक, धम्मसारहिणा - धर्म सारथी, धम्मवर चाउरंत चक्कवट्टिणा - तीन ओर महासमुद्र तथा एक ओर हिमवान् की सीमा लिये विशाल भूमण्डल के स्वामी, चक्रवर्ती की तरह उत्तम धर्म - साम्राज्य के सम्राट, अप्पडिहयवरणाण दंसणधरेणं - प्रतिघात, विसंवाद या अवरोध रहित उत्तम ज्ञान व दर्शन के धारक, वियट्टछउमेणंघातिकर्मों से रहित, जिणेणं - जिन-राग-द्वेष - विजेता, जावएणं - ज्ञायक- राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक, तीर्ण - संसार सागर को तैर जाने वाले, तारएणंराग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, बुद्धेणं - बोध युक्त, बोहएणं - बोधक - बोधप्रद, मुत्तेणं - मुक्त- बाहरी तथा भीतरी ग्रन्थियों से छूटे हुए, मोयगेणं मोचक - मुक्तता के प्रेरक, सव्वण्णूणं - सर्वज्ञ, सव्वदरिसिणा - सर्वदर्शी, सिवं - शिव-मंगलमय, अयलं अचलस्थिर, अरुयं - अरुज-रोग या विघ्न रहित, अणंतं - अनन्त, अक्खयं अक्षय, अव्वाबाहंअव्याबाध- बाधा रहित, अपुणरावित्तियं - अपुनरावर्तित पुनरावर्तन रहित, सासयं शाश्वत, ठाणं - स्थान, उवगएणं उपगत- समीप पहुँचे हुए, अयं यह, अट्ठे - अर्थ, पण्णत्ते प्रज्ञप्त किया गया- बतलाया गया, भंते - भगवन्, के क्या ?
तिण्णेणं
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भावार्थ धर्म-तीर्थ के संस्थापक, केवलज्ञान से विभूषित, श्रुत-परंपरा के संप्रवर्त्तक, पुरुषोत्तमत्व आदि अनेकानेक उत्तमोत्तम गुणों के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्रगत विषयों का आपने परिज्ञापन- विवेचन किया। अब कृपया बतलाएं, भगवान् महावीर स्वामी ने छठे अंग ज्ञाताधर्म का क्या अर्थ कहा- तद्गत विषयों का किस प्रकार विवेचन किया?
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