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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
इस टीका पाठ में स्पष्ट रूप से 'स्त्री परिणाम' को अर्थात् जिस कर्म के. उदय से स्त्रीत्व (स्त्रीपन) प्राप्त हो उसको अर्थात् 'स्त्रीवेद' को 'स्त्री नाम' कहा है। 'स्त्री नाम' इस प्रकार का गोत्र अर्थात् अभिधान संज्ञा जिस कर्म की हो, उसे 'स्त्री नाम गोत्र' कहा जाता है। इस प्रकार टीकाकार 'स्त्रीवेदमोहनीय' को ही 'स्त्रीनाम गोत्र' समझा रहे हैं। जो अन्य आगम पाठों से सम्मत है। स्त्रीवेद का उदय होने पर तदनुरूप शरीर रचना एवं तदनुरूप नाम से प्रसिद्धि होने से नाम गोत्र कर्म भी साथ में तो रहता ही है। मुख्यता तो मोहनीय कर्म की ही समझी जाती है। पूज्य श्री घासीलाल जी म. सा. की टीका में भी 'स्त्रीभावः स्त्रीत्वं' शब्द प्राचीन अभयावृत्ति के 'स्त्री परिणामः-स्त्रीत्वं का ही शब्दान्तर।' पुरानी टीका के विचारों का खण्डन भी नहीं किया है। अतः हमारी दृष्टि से तो पूज्य घासीलाल जी म. सा. भी इसका अर्थ 'स्त्रीवेद मोहनीय' ही करते हैं। स्त्री प्रायोग्य शरीर की रचना में स्त्रीवेद का उदय ही प्रमुख कारण समझा जाता है। देह धारण के पश्चात् वेद की उत्कटता के कारण भाव वेद में परिवर्तन हो सकता है। मन्द वेद में भाव वेदों के परिवर्तन संभव नहीं लगते हैं। शरीर रचना के समय तो भाववेद के अनुसार ही प्रायः रचना संभव लगती है।
(१४३) तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं मल्लीए विदे० अंतिए एयमढे सोच्चा २ सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूह जाव सण्णिजाईसरणे समुप्पण्णे एयमटुं सम्मं अभिसमागच्छति।
शब्दार्थ - ईहा - अर्थ विषयक जिज्ञासा पूर्ण चेष्टा, ऊह - अर्थ निश्चय का प्रयास।
भावार्थ - तत्पश्चात् जितशत्रु आदि राजाओं को विदेह राजकन्या मल्ली से यह सुनकर शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं तथा जातिस्मरण ज्ञान को आवृत करने वाले कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण पूर्वक संज्ञी-समनस्क प्राणियों को होने वाला जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। फलतः उन्होंने इस अभिप्राय को भली भांति जान लिया।
(१४४) तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्ण जाईसरणे
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