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मल्ली नामक आठवां अध्ययन - मल्ली द्वारा प्रतिबोध
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उत्पन्न हुई हूँ। क्या तुम लोग भूल गए जब जयंत अनुत्तर विमान में वास करते थे, वहाँ हमने एक दूसरे को प्रतिबोध देने की प्रतिज्ञा की थी। तुम उस देव भवगत वृत्तांत को स्मरण करो।
विवेचन - महाबल अनगार ने तपविषयक माया करने से 'निकाचित स्त्रीवेद' का बन्ध किया था। आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करने वाले भी संलेखना कर सकते हैं। इतने मात्र से (संलेखना कर लेने से) वे आराधक नहीं हो जाते हैं। महाबल अनगार तो आलोचना, प्रतिक्रमण करके संयम साधना को शुद्ध करके आराधक बने थे। आराधक होने पर ही अनुत्तर विमान में जाया जाता है। आराधक हो जाने पर पूर्वबद्ध (तीव्र माया भावों में बंधा हुआ-मिथ्यात्व अवस्था में) स्त्री वेद का निकाचित बंध होने के कारण उसमें परिवर्तन नहीं हो सका।
आराधक होने के बाद तो उस भव में स्त्रीवेद आदि पाप प्रकृतियों का निकाचित बंध नहीं होता है। किन्तु पूर्व में 'तीव्र माया' आदि के भावों में बन्धा हुआ 'निकाचित स्त्रीवेद' का बन्ध तो आराधक को एवं अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले यावत् लवसप्तम देवों को भी भोगने पड़ते हैं। यही कारण है कि - एक भवावतारी 'तीर्थंकर नाम गोत्र' बांधे हुए महाबल को भी स्त्रीवेदी बनना पड़ा। • भगवती आदि सूत्रों में बताया गया है कि - एक भी अकृत्य स्थान की जानबूझकर (आभोग पूर्वक) आलोचना नहीं करने पर व्यक्ति आराधक नहीं होता है। महाबल अनगार आराधक होने से उन्होंने अपने ‘अकृत्य स्थान (तप विषयक माया)' की शुद्धि तो की ही थी। किन्तु निकाचित स्त्रीवेद का बन्ध हो जाने से उसमें परिवर्तन नहीं हो सका।
'स्त्री' अंगोपांग' नाम कर्म की कोई प्रकृति नहीं है। ज्ञाता सूत्र अ० ८ में 'इत्थि नाम गोयं कम्म' शब्द आ जाने मात्र से इसे नाम गोत्र कर्म की प्रकृति मान लेना अनेक ऊहापोहों का कारण बन सकता है। आगम में 'तित्थयर नाम गोयं' 'कोहवेयणिजं' इत्यादि शब्द आते हैं इस कारण से 'तीर्थंकर नाम' गोत्र कर्म की प्रकृति नहीं हो जाती है। एवं क्रोध मोह वेदनीय कर्म की. प्रकृति नहीं हो जाती है। आगमकारों का आशय-'तीर्थंकर इस नाम से प्रसिद्ध होने के कारण नामकर्म की प्रकृति होते हुए भी उसे 'तीर्थंकर नाम गोत्र' कह देते हैं।' क्रोधादि के रूप में वेदा जाने के कारण मोहनीय कर्म की प्रकृति होते हुए भी आगमकार उसे 'क्रोधादि वेदनीय' कह देते हैं। इसी प्रकार 'स्त्रीवेदी' इस नाम से जिस कर्म के उदय से प्रसिद्धि, उस मोहनीय कर्म की प्रकृति को भी स्त्रीनाम गोत्र' कह देते हैं। क्योंकि टीका में भी बताया है - 'स्त्रीनाम-स्त्री परिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद्भवति तत्स्त्रीनाममिति गोत्रमभिद्यानं यस्य तत्स्त्रीनाम् गोत्रम्'
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