SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि ३६७ शब्दार्थ - उस्सियसिया - जिसके सफेद पाल खोल दिए गए थे, विततपक्खा - फैले हुए पंखों से युक्त, गरुडजुवई - युवा गरुडी, समइच्छमाणी - लांघती हुई। . . भावार्थ - इस प्रकार बंधन खोल दिए जाने पर तेज हवा से समाहत संप्रेरित, खुले हुए सफेद पालों से युक्त नौका ऐसी लगती थी, मानो अपने पंख फैलाए एक गरुड़ युवती हो। गंगा के जल के तीव्र वेगयुक्त प्रवाह से संक्षुब्ध होती हुई टकराती हुई तथा हजारों- लहरों और तरंगों को लांघती-लांघती वह नौका आगे लवण समुद्र में चलती-चलती, कतिपय दिन रात के अनंतर सैकड़ों योजन दूर तक चली गई। (५६) तए णं तेसिं अरहण्णग पामोक्खाणं संजत्ताणावावाणियगाणं लवण समुदं अणेगाइंजोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाइतंजहा। शब्दार्थ - उप्पाइयसयाई - सैंकड़ों उत्पात-अपशकुन। भावार्थ - इस प्रकार अर्हन्नक आदि समुद्री व्यापारियों के लवण समुद्र में सैकड़ों योजन आमे बढ़ जाने पर एकाएक अनेकानेक अपशकुन दृष्टिगोचर होने लगे। वे इस प्रकार थे - (६०) अकाले गज़िए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे अभिक्खणं २ आगासे देवयाओ णच्चंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति। भावार्थ - असमय में ही गर्जना होने लगी। आकाश में बिजली चमकने लगी। मेघों की गंभीर ध्वनि होने लगी। आकाश में बार-बार देव नाचने लगे। एक बहुत बड़ा पिशाच दिखाई देने लगा। (६१) ताल जंघं दिवं गयाहिं बाहाहिं मसिमूसगमहिसकालगं भरियमेहवण्णं लंबोटं णिग्गयग्गदंतं णिल्लालियजमलजुयल जीहं आऊसियवयणगंड देसं चीणचि(पिड)मिढणासियं विगयभुग्गभग्गभुमयं खजोयगदित्त चक्खुरागं उत्तासणगं विसालवच्छं विसालकुच्छिं पलंबकुच्छिं पहसिय पयलियपयडियगतं पणच्चमाणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy