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________________ ३६६ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र वाद्यों की मधुर ध्वनि गूंज उठी। विजय सूचक शकुन हुए। राजा का आदेश-पत्र प्राप्त हो चुका था। प्रक्षुभित महासागर की गर्जना के समान अपनी आवाज से मानो पृथ्वी को पूर्ण करते हुएभरते हुए से, वे व्यापारी एक ओर से पोत पर आरूढ हुए। . (५७) तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-हं भो! सव्वेसिमवि अत्थसिद्धी. उवट्ठियाई कल्लाणाई पडिहयाई सव्वपावाइं जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयं देसकालो। तओ पुस्समाणएणं वक्केमुदाहिए हट्टतुट्टे कुच्छिधारकण्णधारगन्भिज्ज संजत्ताणावावाणियगा वावारिंसु तं णावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिंतो मुंचंति। शब्दार्थ - पुस्समाणवो - मागध-मंगलपाठक, वक्कं - वाक्य-वचन, कुच्छिधारकुक्षिधार-नौका के पार्श्व में स्थिति संचालकजन, कण्णधार - कर्णधार-नौका को खेने वाले, गब्भिज - गर्भज-अवसरानुरूप अपेक्षित काम करने वाले, नौका के मध्य स्थित जन, वावारिंसुकार्य-संलग्न हुए, पुण्णुच्छंगं - तिजारती सामान से भरी हुई, पुण्णमुहिं - मंगलोन्मुख, बंधणेहिंतो - बंधनों से। भावार्थ - फिर मंगलपाठक इस प्रकार वचन बोले - महानुभावो! आप सबका अर्थलक्ष्य सिद्ध हो। मंगल उपस्थित हो-प्राप्त हो। समस्त पाप-विघ्न प्रतिहत-नष्ट हों। इस समय पुष्य नक्षत्र चंद्रमा से युक्त है। विजयसंज्ञक मुहूर्त है। देश-काल यात्रा के लिए उपयुक्त-उत्तम है। मंगल-पाठकों द्वारा ये वाक्य बोले जाने पर वे व्यापारी हर्षित एवं परितुष्ट हुए। पार्श्वस्थित संचालकजन, कर्णधार, अन्तवर्ती कर्मकर तथा नौका वणिक, सांयात्रिक गण स्व-स्व कार्यों में सावधान हुए। तिजारती सामान से परिपूर्ण उस मंगलमुखी नौका के बंधन खोल दिए गए। . (५८) तए णं सा णावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाहया ऊसियसिया विततपक्खा इव गरुड(ल)जुवई गंगासलिलतिक्खसोयवेगेहिं संखुन्भमाणी २ उम्मीतरंग माला सहस्साई समइच्छमाणी २ कडवएहिं अहोरत्तेहिं लवण समुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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