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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ओजस्वी, तेजंसी- तेजस्वी, वच्चंसी वचस्वी - प्रशस्त भाषी अथवा वर्चस्वी वर्चस् या प्रभावयुक्त, जसंसी - यशस्वी, जिय कोहे - क्रोध जेता, जियमाणे - मान जेता, जियमाएमाया जेता, जिय लोहे लोभ जेता, जियइंदिए - इन्द्रिय जेता, जियणिद्दे - निद्राजेता, जिय परिस परीषह जेता- कष्ट विजेता, जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्के जीवन कीं १० - - Jain Education International विज्जा आशा - कामना तथा मृत्यु के भय से रहित, तवप्पहाणे प्रधान-त्याग वैराग्य आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करण चारित्र, णिग्गह निग्रह - राग आदि शत्रुओं का निरोध, विश्वास, अज्जव आर्जव - - ऋजुता सरलता, मद्दव क्षमाशीलता, गुत्ति - गुप्ति-मानसिक, वाचिक एवं कायिक उनका उपयोग, मुत्ति - मुक्ति कामनाओं से मुक्ति मंत मन्त्र - सत् चिंतन या सद्विचार, बंभ - ब्रह्मचर्य, वेय - शास्त्र णय नैगम आदि, सच्च सत्य, सोय शौच आत्मिक शुचिता या पवित्रता, पहा प्रधान-इन-इन विशेषताओं से युक्त, उ (ओ) राले - साधना में सशक्त प्रबल, घोरे घोर - आंतरिक शत्रुओं का निग्रह करने में रोकने में कठोर या अद्भुत शक्ति-सम्पन्न, घोरव्वएघोरव्रती-महाव्रतों का अत्यंत दृढता से पालन करने वाले, घोर तवस्सी - उग्र तप करने वाले, घोर बंभचेरवासी - कठोर ब्रह्मचर्य के व्रत को दृढ़ता पूर्वक पालन करने वाले, उच्छूढ सरीरेउत्क्षित शरीर- दैहिक सार-संभाल या सज्जा आदि से रहित, संखित्त-विउल तेउलेस्से - विपुल या विशाल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए, चोद्दसपुव्वी - चवदह पूर्वों के ज्ञान को धारण करने वाले, चउणाणोंवगए - मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान से युक्त, पंचि अणगारसएहिं - पांच सौ साधुओं से संपरिवुडे संपरिवृत - घिरे हुए, पुव्वाणुपुव्विं- पुर्वानुपूर्व - अनुक्रम से, चरमाणे- आगे बढ़ते हुए, गामाणुगामं - ग्रामानुग्राम - एक गांव से दूसरे गांव में, दूइज्जमाणे - जाते हुए, सुहसुहेणं - सुख पूर्वक, विहरमाणे - विहार करते हुए, जेणेंवजहाँ, तेणामेव - वहाँ, उवागच्छइ आकर, अहापडिरूवंयथा प्रतिरूप - साधुचर्या के अनुरूप, उग्गहं अवग्रह- आवास-स्थान, ओगिण्हड़ - ग्रहण किया, ओगिण्हित्ता ग्रहण करके, संजमेण - संयम से, तवसा तपसे, अप्पाणं आत्मा को, आये - पधारे, उवागच्छित्ता भावेमाणे- भावित करते हुए, विहरइ - विचरते थे। भावार्थ भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा स्वामी, जो कुलीनता, देह - - - - · - - - णिच्छय मार्दव - 3 - For Personal & Private Use Only तपः प्रधान, गुणप्पहाणे - गुण आहार विशुद्धि आदि, चरण . सत्य-तत्त्व में निश्चित - - वृत्तियों का गोपन या विवेक पूर्वक - ज्ञान की विविध शाखाएँ, वेद आदि लौकिक-लोकोत्तर - मृदुता - कोमलता, खं - - - www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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