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________________ ८ धर्मग व्याकरण के अनुसार चैत्य शब्द 'चिति' से बना है। 'चिति' का अर्थ चिता है। ऐसा अनुमान है कि मृत व्यक्ति का जहाँ दाह-संस्कार किया जाता, उस स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीनकाल से परम्परा रही है। ऐसा माना जाता है कि भारत वर्ष में ही नहीं किन्तु उसके बाहर अन्य देशों में भी ऐसा होता रहा है । चिति (चिता) के स्थान पर लगाए जाने के कारण संभवतः उस वृक्ष को चैत्य के नाम से कहा जाने लगा हो । • मानव तो एक कल्पनाशील प्राणी है। समय बीतने पर वह परम्परा परिवर्तित हो गयी हो । वृक्ष लगाने के स्थान पर मृत पुरुष की स्मृति में चबूतरा बनाये जाना लगा हो। बदलते हुए कालक्रम के अनुसार चबूतरे का स्थान एक मकान ने ले लिया हो। अपने मन के परितोष के लिए मानव की कल्पना कुछ ओर आगे बढ़ी हो। उस मकान में किसी लौकिक देव, यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी हो, ऐसा प्रतीत होता है । यों उसने एक देवायतन का रूप ले लिया हो । परिवर्तन की इस प्रक्रिया में स्मृति के प्रतीक तो बदलते रहे, किन्तु उन सब के लिए चैत्य शब्द ही प्रयुक्त होता रहा । अर्थात् इस अर्थ - परिवर्तन की श्रृंखला में चैत्य शब्द देव स्थान का पर्यायवाची हो गया । जैनागमों में चैत्य के वर्णन से ऐसा अनुमान होता है कि वह लौकिक दृष्टि से पूजा-अर्चना का स्थान रहा। लोग अनेक प्रकार की कामनाएँ लेकर वहाँ आते रहते, क्योंकि सामान्य लोगों में ऐसा व्यवहार देखा जाता है। साथ ही साथ वह नागरिकों के आमोद-प्रमोद एवं हास - विलास के स्थान के उपयोग में आता था। चैत्यों के वर्णन के अन्तर्गत नर्तकों, कथकों-कथाकारों, हासपरिहासकारों, मल्लों तथा मागधों-यशोगाथा गाने वालों की अवस्थिति से यह प्रकट होता है। चैत्यं राज्ञी शयनस्थानं १०१ चेई रामस्य गर्भता १०२ । चैत्यं श्रवणे शुभे वार्ता १०३ चेई च इन्द्रजालकम् १०४॥ चैत्यं यत्यासनं प्रोक्तं १०५ चेई च पापमेव च १०६ । चैत्यमुदयकाले च १०७ चैत्यं च रजनी पुनः १०८ ॥ चैत्यं चन्द्रो द्वितीयः स्यात् १०६ चेई च लोकपालके ११० । चैत्यं रत्नं महामूल्यं १११ चेई अन्यौषधीः पुनः ॥ ११२ ॥ (इति अलंकरणे दीर्घ ब्रह्माण्डे सुरेश्वरवार्तिके प्रोक्तम् प्रतिमा चेइय शब्दे नाम ६० मो छे । चेइय ज्ञान नाम पांचमो छे । चेइय शब्दे यति=साधु नाम ७ मुं छे । पछे यथायोग्य ठामे जे नामे हुवे ते जाणवो । सर्व चैत्य शब्द ना आंक ५७, अने चेइयं शब्दे ५५ सर्व ११२ लिखितं पू० भूधर जी तत्शिष्य ऋषि जयमल नागौर मझे सं. १८०० चैत सुदी १० दिने) - जयध्वज पृष्ठ ५७३-७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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