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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
उसके मुख पर लेप किया। तदनंतर उसे चिह्नित किया, सील किया। फिर उसे कोष्ठागार के एक भाग में रख दिया एवं उसका संरक्षण-संगोपन करते रहे।
(१४) तए णं ते कोडुंबिया दोच्चंसि वासारत्तंसि पढम पाउसंसि महावुट्टिकार्यसि णिवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति २ ता ते साली ववंति दोच्चंपि तच्वंपि उक्खयणिहए जाव लुणंति जाव चलणतलमलिए करेंति २ त्ता पुणंति । तत्थ णं बहवे सालीणं कुडवा मुरला जाव एगदेसंसि ठावेंति २त्ता सारक्खेमाणा०. विहरंति।
शब्दार्थ - वासारत्तंसि - वर्षा ऋतु में, चलणतलमलिए - पादतल से मले हुए।
भावार्थ - फिर कौटुंबिक पुरुषों ने दूसरी वर्षा ऋतु के प्रारंभ में ही पर्याप्त. वर्षा हो जाने पर छोटी क्यारी बनाई। उसे साफ-सुथरा कर वपन योग्य बनाया, शालिधान को बोया। दो . बार-तीन बार पौधों को उखाड़ा, पृथक् स्थानों में रोपा यावत् जब वे भली भांति परिपक्व हो गए, तब उन्हें काटा यावत् पैरों से रौंदा, साफ किया। इस प्रकार अनेक कुडव शालि धान तैयार हो गये। यावत् उन्होंने उसे कोठार के एक भाग में रखा एवं उसका संरक्षण, संगोपन करते रहे।
(१५) तए णं ते कोढुंबिया तच्चंसि वासारत्तंसि महावुट्टिकायंसि णिवइयंसि बहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणंति २ ता संवहंति २ त्ता खलयं करेंति २ त्ता मलेंति जाव बहवे कुंभा जाया। तए णं ते कोडुंबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति जाव विहरंति। चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया। . .
शब्दार्थ - संवहंति - भारे बनाकर लाते हैं, खलयं - खलिहान।
भावार्थ - तदनंतर कौटुंबिक पुरुषों ने तीसरी वर्षाऋतु के प्रारंभ में, अत्यधिक वृष्टि होने पर क्यारियाँ बनाई, उन्हें स्वच्छ किया यावत् यथाविधि धान को बोया, यथाक्रम उखाड़ा-रोपा, परिपक्व होने पर काटा। वे उनके भारे बना कर खलिहान में लाए। वहाँ उसे रौंदा। परिणाम स्वरूप अनेक कुंभ परिमित शालि धान हुआ।
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