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________________ ३२२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - णवपजणएहिं - नयी धार चढ़ाए हुए, असियएहिं - दात्रों-हंसियो से, लुणंति - काटते हैं, पुणंति - हवा में उड़ाकर साफ करते हैं, चोक्खाणं - कचरा निकाल कर साफ किए हुए, सूइयाणं - वपन योग्य-अक्षुण्ण, अखंडाणं - अखंडित, अफोडियाणं - . अस्फुटित-टूट-फूट रहित, छड्डछडा पूयाणं - सूप से फटक-फटक कर साफ किए हुए, . मागहए - मगध देश में प्रचलित, पत्थए - एक प्रस्थमान-परिमाण युक्त। भावार्थ - सेवकों ने धान को जब पत्रित यावत् ऊपरी शुष्क आवरण युक्त जाना-उसे भली भांति पका हुआ देखा तो उन्होंने तीक्ष्ण-तीखे, धार कराए हुए दात्रों से काटा। हाथों से मला, साफ किया। सूप से फटका, परिणाम स्वरूप अक्षुण्ण, अखंडित, अस्फुटित - उत्तम . कोटि का एक प्रस्थ परिमित शालि धान तैयार हुआ। विवेचन - इस सूत्र में आया हुआ प्रस्थ' शब्द भारत में प्रचलित पुराने माप-तौल से संबद्ध है। प्राचीन काल में हमारे देश में माप-तौल के अनेक रूपं प्रचलित थे। उनमें मागधमान तथा कलिंगमान का अपेक्षाकृत अधिक प्रचलन था। उत्तर भारत में तो लगभग सभी स्थानों में ये चलते थे। इन दोनों में भी मागधमान अधिक उपयोग में आता था। मागध का संबंध मगध से है। दक्षिण बिहार को प्राचीन काल में मगध कहा जाता था। अति प्राचीन काल में वहाँ का पाटनगर (राजधानी) गिरिव्रज था। वही आगे चलकर राजगृह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान् महावीर स्वामी और तथागत बुद्ध के समय मगध का पाटनगर राजगृह था। जो अब राजगिर कहलाता है। आगे चलकर उसका स्थान पाटलिपुत्र ने ले लिया। चंद्रगुप्त मौर्य के समय यही वहाँ की राजधानी थी। मगध और पाटलिपुत्र का चंद्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में सर्वाधिक महत्त्व था। क्योंकि चंद्रगुप्त मौर्य का पूरे उत्तर भारत में शासन था। यों पाटलिपुत्र तथा मगध का प्रादेशिक महत्त्व ही नहीं था, वरन् राष्ट्रीय महत्त्व था। इसीलिए वहाँ के मान या माप तौल की अधिक मान्यता थी। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ भाव प्रकाश' में महर्षि चरक को आधार मानकर माप-तौल का जो विवेचन किया गया है, वह पठनीय है। वहाँ परमाणु से प्रारंभ कर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत मानों का वर्णन है। वहाँ कहा गया है कि ३० परमाणु मिलकर एक त्रसरेणु का रूप लेते हैं। इसका दूसरा नाम वंशी भी है। गवाक्ष की जालियों पर जब सूरज की किरणें पड़ती है तब जो छोटे-छोटे रजकण दृष्टि गोचर होते हैं, उनमें से प्रत्येक की संज्ञा त्रसरेणु या वंशी है। छह त्रसरेणुओं के मिलने से एक मरीचि बनती है। छह मरीचियों के सम्मिलन से एक राजिका बनती है। अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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