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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - मुक्ति लाभ
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यों सोचकर अपने चिंतन को क्रियान्वित कर, अगले दिन प्रातः काल उसने वहाँ से विहार कर दिया।
(६६) एवामेव समणाउसो! जाव णिग्गंथो वा २ ओसण्णे जाव संथारए पमत्ते विहरइ से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ हीलणिजे संसारो भाणियव्वो।
भावार्थ - आयुष्मान श्रमणो! जो साधु या साध्वी संयम के पालन में प्रमाद करते हैं, यावत् शय्या संस्तारक आदि में आसक्त रहने लगते हैं, वे इस लोक में बहुत से साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं द्वारा अवहेलना योग्य हो जाते हैं। संसार में परिभ्रमण करते हैं। एतद् विषयक वर्णन पूर्ववत् कथनीय है। .साधुओं का पुनर्मिलन
(७०) . तए णं ते पंथगवजा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु सेलए रायरिसी पंथएणं बहिया जाव विहरइ। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सेलगं रायरिसिं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए। एवं संपेहेंति २ त्ता सेलगं रायरिसिं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति। _ भावार्थ - तब पंथक को छोड़कर पांच सौ (४६६) अनगारों को जब यह वृत्तांत ज्ञात हुआ तो वे इस संदर्भ में परस्पर मिले और बोले-राजर्षि शैलक पंथक के साथ, यावत् जनपद विहार कर रहे हैं। इसलिए हम लोगों के लिए यह श्रेयस्कर है कि हम शैलकराजर्षि से मिलने चलें। ऐसा विचार कर वे शैलकराजर्षि से मिले और विहरणशील हुए।
मुक्ति लाभ
(७१) तए णं से सेलए रायरिसि पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि
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