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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
सामण्णपरियागं पाउणित्ता जेणेव पुंडरीय-पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा ४। ___भावार्थ - तदनंतर शैलक आदि मुनि बहुत वर्षों तक श्रामण्य जीवन का पालन कर पुंडरीक-शत्रुजय पर्वत पर आए। आकर उसी प्रकार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए सब कर्मों का अंत किया, जिस प्रकार थावच्चापुत्र ने किया था।
(७२) एवामेव समणाउसो! जो णिग्गंथो वा २ जाव विहरिस्सइ। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि।
भावार्थ - आयुष्मान श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु-साध्वी, यावत् संयम का भली भांति पालन करते हुए विहरणशील होंगे। यावत् संसार का अंत कर मोक्षगामी होंगे। ...
हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पांचवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है। तदनुसार मैंने तुम्हें बतलाया है। उवणय गाहा - सिढिलियसंजमकजावि होइउं उजमंति जइ पच्छा।
संवेगाओ तो सेलउव्व आराहया होंति॥१॥
॥ पंचम अज्झयणं समत्तं॥ शब्दार्थ - सिढिलिय - शैथिल्य युक्त, इ - यदि, पच्छा - पश्चात्, उजमंति - पवित्र बनते हैं, संवेगाओ - वैराग्यपूर्वक, आराहया - आराधक।
भावार्थ - जो संयम में शिथिल हो जाते हैं, वे पुनः वैराग्य पूर्वक यदि शैलक की तरह उज्ज्वल, पवित्र हो जाते हैं तो वे फिर आराधक बन जाते हैं॥१॥
|| पांचवां अध्ययन समाप्त॥
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