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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र . यहाँ ज्ञातव्य है - आगम श्रुत-परम्परा यथावत् रूप से चलती रहे उसमें जरा भी विकृति न आ पाये इसके लिए साधु संघ अत्यधिक प्रयत्नशील रहा।। ___भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग एक सौ साठ वर्ष* बाद मगध में द्वादश वर्षीय दुष्काल पड़ा तब वहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य था। जैन साधु इधर-उधर बिखर गये, अनेक दिवगंत हो गये। जैन संघ को यह चिंता हुई कि आगम ज्ञान के रूप में जो महत्त्वपूर्ण विरासत उसे प्राप्त है, उसकी कैसे रक्षा की जाए? जब पाटलिपुत्र में जो अब पटना के नाम से प्रसिद्ध है, बिहार की राजधानी है, साधुओं का सम्मेलन आयोजित किया गया। आगमों की वाचना की गई पाठ का मेल न किया गया। ग्यारह अंगों का इस सम्मेलन में संकलन किया गया। केवल आचार्य भद्रबाहु स्वामी को चौदह पूर्वो का ज्ञान था। कहा जाता है कि वे उस समय नेपाल देश में महाप्राण ध्यान की साधना में संलग्न थे। उनसे चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया। किन्तु उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। श्री स्थूलभद्र अर्थ सहित दस पूर्वो का ज्ञान ही प्राप्त कर सके। बाकी के चार पूर्वो. का उन्हें केवल मूल पाठ ही प्राप्त हो सका। ___आगमों के संकलन एवं व्यवस्थापन का जैन इतिहास के अनुसार यह पहला प्रयास था। इसे आगमों की 'पाटलि पुत्र वाचना' कहा जाता है। . . इस प्रकार प्रथम वाचना में आगम संकलित, सुव्यवस्थित तो कर लिए गये, पर उन्हें सुरक्षित रखने का पहले की ज्यों कंठस्थता का ही आधार रहा। भगवान् महावीर के निर्वाण के ८२७ या ८४० वर्ष बाद आगमों के संकलन का पुनः प्रयत्न हुआ । ऐसा कहा जाता है कि उस समय भी बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। भिक्षा प्राप्त न होने के कारण अनेक साधु दिवंगत हो गये। आगमों के अभ्यास का क्रम अवरुद्ध होने लगा। जब दुर्भिक्ष मिट गया, तब मथुरा में आर्य स्कन्दिल के निर्देशन में साधुओं का सम्मेलन आयोजित किया गया। उसमें पाठों को मिला कर आगमों को सुव्यवस्थित किया गया। आगमों के संकलन का यह दूसरा प्रयास था। इसे 'माथुरी वाचना' कहा जाता है। इसी समय के आस-पास वलभी में आचार्य नागार्जुन के निर्देशन में आगम-वाचना हुई। आगमों का संकलन हुआ। उसे 'वलभी वाचना' अथवा 'नागार्जुनीय वाचना' कहा जाता है। * प्राकृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ५१। * प्राकृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ५१, ५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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