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प्रथम अध्ययन
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होता था, इस वर्णन से यह प्रकट होता है। नगरों में जहाँ गगन चुम्बी प्रासाद होते थे, वहाँ साथ ही साथ हरे भरे लहलहाते सघन वृक्ष लता-कुंज आदि भी होते थे, जिनसे नगरों की शोभा मानी जाती थी। पानी से परिपूर्ण वापी, तालाब आदि भी होते थे। नगर के उपकंठ में कुसुमित वृक्षों और लताओं से सुरभित वन खंड होते थे, जहाँ विविध प्रकार के पक्षी कलरव करते थे।
वण्णओ - यहाँ एक तथ्य विशेष रूप से जानने योग्य है। प्राचीनकाल में आगमों का, शास्त्रों का ज्ञान कंठस्थ रखने की परम्परा थी। वैदिक धर्म के 'वेद', बौद्धधर्म के 'पिटक' तथा 'जैनागम' - ये तीनों कंठस्थ रूप से चलते रहे। गुरुजन से शिष्य शास्त्र-पाठ श्रवण करते तथा उसे अपनी स्मृति में रखते। वेदों के लिए 'श्रुति' शब्द तथा जैन ‘आगम ज्ञान' के लिए 'श्रुत' शब्द का प्रयोग इसी आशय का सूचक है। .. आगमों को शताब्दियों तक कंठस्थ-विधि से सुरक्षित रखने की दृष्टि से अधिक विस्तार से बचने के लिए राजा, श्रेष्ठी, सार्थवाह, नगरी, नदी, उद्यान, वनखंड, ग्राम, सरोवर, वापी एवं चैत्य आदि विषयों का जिनका आगमों में अनेक स्थानों पर वर्णन आया है, एक विशेष स्वरूप (Standard) मान लिया गया, जिसे सभी राजाओं, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों, नगरियों, नदियों, उद्यानों, वनखंडों, ग्रामों, सरोवरों, वापियों तथा चैत्यों आदि के लिए उपयोग में लिया जाता रहा। . यद्यपि सभी नगर, उद्यान आदि सर्वथा एक समान नहीं होते, यह सही है किन्तु स्थूल दृष्टि से उनमें बहुत कुछ समानता होती है। इसी भाव से यहाँ ऐसा किया गया है। तदनुसार जिस किसी आगम में प्रासंगिक रूप में नगर, उद्यान आदि किसी विषय का वर्णन अपेक्षित हो
और यदि उसे किसी अन्य आगम से, जिसमें यह आया हो, लेने का संकेत करना हो तो 'वण्णओ' पद का उपयोग किया गया है, जिसका यह अभिप्राय होता है कि वह विषय अमुक आगम में वर्णित है, जहां से उसे यहां ले लिया जाए।
उदाहरणार्थ - औपपातिक सूत्र में नगरी, चैत्य, वनखंड, पादप(वृक्ष), शिलापट्टक, राजा, राजमहिषी इत्यादि का प्रसंगवश विस्तृत वर्णन आया है। इन विषयों का वर्णन यहीं से उद्धृत करने का ‘वण्णओ' द्वारा अनेक आगमों में संकेत किया गया है। .
उववाइय सुत्त सूत्र ३ पृष्ठ १८-२३
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