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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - थावच्चापुत्र के उपर्युक्त समाधान से शुक परिव्राजक को संबोध प्राप्त हुआ। उसने थावच्चापुत्र को वंदन, नमन कर कहा-'भगवन्! मैं आपके पास केवलि-प्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूँ।' ___ तब थावच्चापुत्र ने धर्मोपदेश दिया। यह वर्णन पूर्व प्रसंगों से जान लेना चाहिए। शुक परिव्राजक ने थावच्चापुत्र से धर्म का श्रवण कर कहा-'भगवन्! मैं अपने एक हजार परिव्राजकों सहित आप से मुंडित प्रव्रजित होना चाहता हूँ।'
थावच्चापुत्र बोले-'देवानुप्रिय! जिससे तुम्हारी आत्मा को सुख मिले, वैसा करो' यावत् शुक परिव्राजक ने उत्तर-पूर्व दिशा भाग में-ईशान कोण में अपने त्रिदण्ड यावत् काषाय रंग के वस्त्र एकांत स्थान में डाल दिए। वैसा कर उसने स्वयं अपनी शिखा उखाड़ ली। वह अनगार थावच्चापुत्र के पास आया, उनको वंदन, नमस्कार किया, उनसे मुंडित यावत् प्रव्रजित हुआ।
सामायिक आदि से प्रारंभ कर चतुर्दश पूर्व पर्यंत अध्ययन किया। तदनंतर थावच्चापुत्र ने शुक को एक सहस्र शिष्य प्रदान किए। थावच्चापुत्र : सिद्धत्व-प्राप्ति
(५२) ___ तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ णयरीओ णीलासोयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय विहारं विहरइ। तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुड़े जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ दुरूहित्ता मेघघणसण्णिगासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं समणुवण्णे। तए णं से थावच्चा पुत्ते बहूणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए जाव केवलवरणाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे जाव प्पहीणे।
शब्दार्थ - देवसण्णिवायं - देवसन्निपात-देवों का आगमन, पाउणित्ता - पालन कर।
भावार्थ - तदनंतर थावच्चापुत्र सौगंधिका नगरी से, नीलाशोक उद्यान से प्रस्थान कर, विभिन्न जनपदों में विहार करते रहे। फिर वे एक हजार अनगारों सहित पुंडरीक पर्वत पर आए। धीरे-धीरे उस पर चढ़े। उस पर सघन बादलों के समान नीले तथा जहाँ देवों का भी आना
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