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________________ शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - शुक का समाधान : दीक्षा २६१ विवेचन - शुक परिव्राजक ने थावच्चापुत्र को निरुत्तर करने हेतु इस सूत्र में ऐसा प्रश्न किया जिसमें सामान्यतः एक दूसरे के विपरीत, भावों का सूचक है। जैसे यदि कोई कहे 'मैं' एक हूँ' तो फिर 'मैं दो हूँ' ऐसा नहीं कह सकता तथा 'अनेक हूँ' ऐसा भी नहीं कह सकता। ___ ऐसा प्रतीत होता है कि शुक परिव्राजक के ध्यान में अनेकांत दृष्टि न रही हो। किन्तु थावच्चापुत्र ने अनेकांतवादी दृष्टिकोण द्वारा सभी भावों का अपने व्यक्तित्व में समावेश सिद्ध कर दिया। ___ उदाहरणार्थ यदि एकात्मक पक्ष को लें तो यह कहा जा सकता है कि आत्मत्व, आत्म स्वरूप या आत्मा के मूल गुणों की दृष्टि से सभी आत्माएं सदृश हैं, एक है। उनमें कोई भेद नहीं है। यह द्रव्यात्मक एकत्व है। किन्तु जैन दर्शन प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा स्वीकार करता है। इस प्रकार वैयक्तिक दृष्टि से आत्मा एक नहीं है, अनेक है। .. मूल स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अक्षय एवं अव्यय है। भूत-वर्तमान एवं भविष्य-तीनों ही कालों में उसका अस्तित्व बना रहता है। वर्तमान पर्याय की दृष्टि से वह अवस्थित है। शुक का समाधान : दीक्षा (५१) एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते! तुब्भे अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं णिसामित्तए। धम्मकहा. भाणियव्वा। तए णं से सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए। अहा सुहं देवाणुप्पिया! जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तिदंडयं जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडेत्ता सयमेव सिंह उप्पाडेइ, उप्पाडेत्ता जेणेव थावच्चापुत्ते जाव मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए सामाइय-माइयाई चोदसपुव्वाइं अहिज्जइ। तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगार सहस्सं सीसत्ताए वियरइ। शब्दार्थ - णिसामित्तए - सुनने के लिए, एडेइ - डालता है, सिंह - शिखा-चोटी, उप्पाडेइ - उत्पाटित करता है-उखाड़ लेता है, वियरइ - देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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