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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
परिव्राजक शुक
(३१) तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए णामं परिव्वायए होत्था रिउव्वेय-जजुव्वेयसामवेय-अथव्वणवेय-सहितंतकुसले संखसमए लट्टे पंचजम-पंचणियम-जुत्तं . सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायग-धम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्त-वत्थपवर-परिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्तछण्णालय-अंकुस-पवित्तय-केसरि-हत्थगए परिव्वायग-सहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव परियव्वायगा-वसहे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता परिव्वायगा-वसहंसि भंडगणिक्खेवं करेइ, करेत्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
शब्दार्थ - सद्वितंत - षष्ठितंत्र, संख समए - सांख्य सिद्धान्त, लद्धढे - लब्धार्थ - . प्रवीण, सोयमूलयं - शौचमूलक, दसप्पयारं - दस विध, परिव्वायगधम्मं - परिव्राजक धर्म, सोयधम्म - शौच धर्म, तित्थाभिसेयं - तीर्थाभिषेक-तीर्थों में स्नान, धाउरत्त - गेरु से रंगे हुए, तिदंड - त्रिदंड-मन, वचन एवं काय के दण्ड-नियंत्रण के परिज्ञापक रूप तीन काष्ठयष्टिकाओं द्वारा योजित दण्ड, कुंडिय - कमंडल, छण्णालय - छह कोनों से युक्त त्रिकाष्ठिका - बैठते समय ध्यानादि में स्थिरता हेतु हाथ रखने के लिए काष्ठ का उपकरण विशेष, अंकुस - वृक्ष के पत्ते आदि तोड़ने की लघु कुठारिका, पवित्तय - ताम्रमय मुद्रिका, केसरि - शुद्ध करने हेतु वस्त्र का टुकड़ा, परिव्वायगा-वसहे - परिव्राजक-आवसथ-परिव्राजकों के ठहरने का स्थानमठ, भंडग-णिक्खेवं - उपकरणों को रखना। __भावार्थ - उस काल, उस समय शुक नामक परिव्राजक था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा षष्टितंत्र में कुशल था. सांख्य-सिद्धांत का विद्वान् था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह रूप पांच यम, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान रूप पांच नियम युक्त शौचमूलक, दस विध परिव्राजक धर्म, दान, धर्म, शौच धर्म एवं तीर्थाभिषेक का उपदेश तथा प्रज्ञापन-विवेचन करता था।
वह उत्तम गैरिक वस्त्र धारण करता था। अपने हाथों में त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका,
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