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________________ शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - श्रेष्ठी सुदर्शन २७५ (२६) धम्म सोच्चा जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइया तहा णं अहं णो संचाएमि पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव समणोवासए जाव अहिगय-जीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया य समणोवासया जाया थावच्चापुत्ते बहिया जणवय विहारं विहरइ। भावार्थ - धर्म-देशना सुनकर राजा शैलक ने कहा कि-देवानुप्रिय! जैसे आपके पास बहुत से उग्र, भोग यावत् अन्यान्य विशिष्टजन रजत, स्वर्ण, यावत् विपुल वैभव का त्याग कर प्रव्रजित हुए, मैं उस प्रकार प्रव्रज्या स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूँ। मैं आपके पास अणुव्रतमय यावत् श्रमणोपासक धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ यावत् जीवाजीव तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान कर यावत् आत्मानुभावित होता हुआ जीवन व्यतीत करना चाहता हूं। यों निवेदित कर राजा और उनके साथ-साथ पंथक आदि पांच सौ मंत्री श्रमणोपासक बने, उन्होंने श्रावक व्रत स्वीकार किए। तदनंतर अनगार थावच्चापुत्र वहाँ से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। श्लेष्ठी सुदर्शन (३०) - तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया णामं णयरी होत्था वण्णओ। णीलासोए उजाणे वण्णओ। तत्थ णं सोगंधियाए णयरीए सुंदसणे णामं णयरसेट्ठी परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए। . भावार्थ - उस काल, उस समय सौगंधिका नामक नगरी थी। (नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र में द्रष्टव्य है।) उसमें नीलाशोक नामक उद्यान था। इसका वर्णन भी औपपातिक सूत्र से ग्राह्य है। सौगंधिकानगरी में सुदर्शन नामक नगर सेठ निवास करता था। वह बहुत ही धनाढ्य यावत् सर्वत्र सम्मानित था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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