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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - थावच्चापुत्र का जनपद विहार
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(२४) तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ जाव पव्वइए। तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए जाव विहरइ। ___ भावार्थ - तदनंतर थावच्चापुत्र ने एक सहस्त्र पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया यावत् प्रव्रज्या स्वीकार की। इस प्रकार वह अनगार-साधु हो गया। भाषा समिति यावत् सर्वविध श्रमण धर्म का व्रत गुप्त्यादि सहित पालन करने में प्रवृत्त रहा। थावच्चा पुत्र की तपःपूत चर्या
(२५) तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिटमेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई चोद्दस पुव्वाई अहिजइ २ ता बहूहिं जाव चउत्थेणं विहरइ। तए णं अरिहा अरिट्ठणेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ।
शब्दार्थ - सीसत्ताए :- शिष्य के रूप में। ... भावार्थ - थावच्चापुत्र ने भगवान् अरिष्टनेमि के सुयोग्य स्थविरों से सामायिक से प्रारंभ कर चतुर्दश पूर्व तक का अध्ययन किया। बहुत से उपवास, बेले एवं तेले आदि के रूप में वे तप करते रहे। तदनंतर भगवान् अरिष्टनेमि ने अनगार थावच्चापुत्र को, उसके साथ जो श्रेष्ठि आदि दीक्षित हुए थे, उन एक हजार साधुओं को, शिष्य के रूप में प्रदान किया। थावच्चापुत्र का जनपद विहार
(२६) ___तए णं से थावच्चापुत्ते अण्णया कयाइं अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अन्भणुण्णाए समाणे अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया।
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