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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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विवेचन - थावच्चापुत्र के दीक्षा वर्णन में मेघकुमार की भलावण आगम लेखकों ने लगाई है। आगम लेखकों ने अमुक-अमुक स्थान पर अमुक-अमुक विषय को विस्तृत लिखकर अन्यत्र संक्षेप में लिखने का निर्णय करके मेघकुमार के स्थान पर विस्तृत लेखन करके अन्यत्र भलावण लगा दी है। पूर्व तीर्थंकरों के शासन के समय की भलावण नहीं समझकर आगम लेखन के समय की भलावण अर्थात् जैसा पहले अध्ययन में मेघकुमार के वर्णन में दीक्षा का वर्णन दिया है। वैसा वर्णन ही थावच्चापुत्र के वर्णन में भी कह देना चाहिए। इस प्रकार भलावण देना लेखन संक्षिप्त करने की दृष्टि से उचित है।
दीक्षा संस्कार
(२३) .. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्त पुरओ काउं जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी सव्वं तं चेव जाव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ। तए णं सा थावच्चा गाहावइणी हंसलक्खणेणं पडगसाडएणं आमरण मल्लालंकारे पडिच्छइ.हारवारिधार छिण्णमुत्तावलिप्पगासाई अंसूणि विणिम्मुंचमाणी २ एवं वयासीजइयव्वं जाया! घडियव्वं जाया! परिक्कमियव्वं जाया! अस्सिं च णं अटे णो पमाएयव्वं जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
शब्दार्थ - जइयव्वं - यत्नशील रहना, घडियव्वं - शुद्ध क्रिया में घटित होना, परिक्कमियव्वं - पराक्रमशील रहना, अस्सिं - इसमें।
भावार्थ - तब वासुदेव कृष्ण थावच्चापुत्र को आगे कर भगवान् अरिष्टनेमि के पास आए। यावत् सभी दीक्षार्थीजनों ने आभरण, माला, अलंकार उतार दिए।
तब थावच्चा ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में आभरण माला एवं अलंकार ग्रहण किए। टूटी हुई मुक्तावलि से गिरते हुए मोतियों के समान उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। वह बोली-"पुत्र! साधनामय जीवन में सदैव यत्नशील रहना। संयम मूल क्रियाओं में अपने आपको परिणत किए रहना। व्रत पालन में पराक्रम शील रहना। जीवन के इस महान् लक्ष्य में प्रमाद मत करना। ऐसा कह कर वह जिस दिशा से आयी थी, उसी ओर चली गई।
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