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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
आ गया है। इससे क्रीड़ा कारक मयूरी शावक उत्पन्न होगा। यों सोच कर उसने मयूरी के अण्डे को बिल्कुल भी उलट-पुलट नहीं किया, यावत् न उसे हाथ में लेकर बजाया ही। वैसा न करने से यथा-समय अण्डा फूटा। उसमें से मयूरी का बच्चा निकला।
(२२) तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरीपोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे मऊरपोसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बहूहिं मऊरपोसण-पाओग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्लेह णटुल्लगं च सिक्खावेह। तए णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एयमंटुं पडिसुणेति २ त्ता तं मऊर पोयगं गेण्हंति २ त्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं मऊर पोयगं जाव णट्टल्लगं सिक्खावेंति।
शब्दार्थ - मऊरपोसए - मयूरों को पालने वालों को, पाओग्गेहिं - प्रायोग्य-प्रयोग करने योग्य, णट्टल्लगं - नाचने की कला।
भावार्थ - जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र मयूरी शावक को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने मयूर पालकों को बुलाया और कहा - मयूर के परिपोषण में, प्रयोग में आने वाले सभी पदार्थों द्वारा क्रमशः इस मयूर शावक का संरक्षण, संगोपन करते हुए संवर्द्धन करो और इसे नाचने की कला सिखलाओ। मयूर पोषकों ने जिनदत्त का कथन स्वीकार किया। वे मोर के बच्चे को अपने घर ले आए और उसका भली भाँति पालन पोषण किया, यावत् उसे नाचने की कला सिखलाई।
(२३) तए णं से मऊरपोयए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणपुत्ते लक्खणवंजण गुणोववेए माणुम्माण-प्पमाण पडिपुण्ण-पक्ख-पेहुणकलावे विचित्त-पिच्छ-सयचंदए णीलकंठए णच्चणसीलए एगाय चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाई णटुल्लगसयाइं केकारवसयाणि य करेमाणे विहरइ।
शब्दार्थ - विण्णायपरिणयमेत्ते - बहुत सूझ-बूझ युक्त, जोव्वणगमणपुत्ते - युवावस्था प्राप्त, लक्खणवंजणगुणोषवेए - मयूर के उत्तम लक्षण एवं चिह्न युक्त, पक्ख - पंख,
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