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अंडक नामक तीसरा अध्ययन - श्रद्धाशीलता का सत्परिणाम
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अश्वद्धा का कुफल
(२०) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा २ आयरिय उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु जाव छज्जीवणिकाएसु णिग्गंथे पावयणे संकिए जाव कलुससमावण्णे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं साविगाणं हीलणिजे जिंदणिजे खिंसणिजे गरहणिजे परिभवणिजे परलोए विय णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य जाव अणुपरियट्टए।
शब्दार्थ - हीलणिजे - अवहेलना योग्य, जिंदणिज्जे - निंदनीय, खिंसणिजे - दुत्कारने योग्य, गरहणिज्जे - गर्हा-कुत्सा के योग्य, परिभवणिज्जे - परिभव-तिरस्कार योग्य। . भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! इस प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य या उपाध्याय से प्रव्रज्या स्वीकार कर पाँच महाव्रतों के विषय में यावत् छह जीव निकाय के संबंध में निर्ग्रन्थ प्रवचन के संदर्भ में शंकाशील होते हैं, यावत् बार-बार संसार रूप घोर वन में चक्कर काटते रहते हैं। नद्धाशीलता का सत्परिणाम
(२१) तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरी अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मऊरी अंडयंसि णिस्संकिए सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मऊरी पोयए भविस्सइ - त्ति कह तं मऊरी अंडयं अभिक्खणं २ णो उव्वत्तेइ जाव णो टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरी अंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे तेणं कालेणं तेणं समएणं उब्भिण्णे मऊरीपोयए एत्थ जाए।
शब्दार्थ - सुव्वत्तए - सुव्यक्त-परिपक्व हो जाने के कारण स्फुट होने की स्थिति प्राप्त, अणुव्वत्तिजमाणे-उलट-पुलट न करने से, उब्भिण्णे - उद्भिन्न-सर्वथा परिपक्व होने पर फूटा। - भावार्थ - जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र, जहाँ मयूरी का अंडा रखा था, वहाँ आया। अण्डे के संबंध में जरा भी शंका न करते हुए वह मन ही मन कहने लगा-अंडा पकने की स्थिति में
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