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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
अभिक्खणं २ कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरी अंडए अभिक्खणं २ उव्वत्तिज्जमाणे जाव टिट्टियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था। ___ शब्दार्थ - संकिए - शंकित-शंका युक्त, कंखिए - फलाकांक्षा युक्त, वितिगिच्छसमावण्णे - विचिकित्सा समापन्न-परिणाम में-संदेह युक्त, भेयसमावण्णे - भेद समापन्नद्वैधपूर्ण बुद्धि युक्त, कलुससमावण्णे - कालुष्यपूर्ण बुद्धि युक्त, उदाहु - अथवा, उव्वत्तेइ - उद्वर्तित करता है-अण्डे के नीचे के भाग को ऊपर की ओर करता है, परियत्तेइ - परिवर्तित करता है, घुमाता है, आसारेइ - एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखता है, संसारेइ - बार-बार स्थानांतरित करता है, चालेइ - चालित करता है, हिलाता है, फंदेइ - स्पंदित करता है, घट्टेइ - हाथ से छूता है, खोमेइ - जमीन में छोटा गड्ढा कर उसमें रखता है, कण्णमूलंसिकान के पास, टिट्टियावेइ - बजाता है, शब्द करवाता है, पोच्चडे - निःसार-निर्जीव। . .
__ भावार्थ - उन दोनों में सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र सवेरा होने पर जंगली मयूरी का अण्डा जहाँ रखा था, वहाँ आया। अण्डे के संबंध में उसका मन तरह-तरह की शंकाओं, संशयों एवं संदेहों से आंदोलित हुआ। वह मन ही मन कहने लगा-क्या इस अण्डे से क्रीड़ा कारक मयूर शिश उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा? यों शंका ग्रस्त होकर वह उस अण्डे को बार-बार ऊँचानीचा करने, उलटने-पलटने लगा। कान के पास ले जाकर उसे बजाने लगा। पुनः-पुनः यह क्रम दोहराने से वह अण्डा निर्जीव हो गया।
(१६) तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव से मऊरी अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मऊरीअंडय पोच्चडमेव पासइ, पासित्ता अहो णं ममं एत्थ कीलावणए मऊरी पोयए ण जाय-त्तिक? ओहयमण जाव झियायइ।
भावार्थ - फिर किसी एक समय सागरदत्त पुत्र, जहाँ मयूरी का अण्डा रखा था, वहाँ आया। आकर देखा कि अण्डा निर्जीव पड़ा है। उसने मन ही मन कहा-अरे क्रीड़ाकारक मयूरी का बच्चा उत्पन्न नहीं हुआ है। उसके मन पर बड़ी चोट पहुंची और वह खेद खिन्न होकर आर्तध्यान करने लगा।
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