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________________ २१० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र + + + + दासचेडं पमत्तं पासइ, पासित्ता दिसालोयं करेइ, करेत्ता देवदिण्णं दारगं गेण्हइ २ त्ता कक्खंसि अल्लियावेइ २ ता उत्तरिजेणं पिहेइ २ त्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स णगरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव जिण्णुजाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिण्णं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ २ ता आभरणालंकारं गेण्हइ २ ता देवदिण्णस्स दारगस्स सरीरगं णिप्पाणं णिच्चेजें जीवियविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवइ २ ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुप्पविसइ २ ता णिच्चले णिप्फंदे तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठ। शब्दार्थ - गढिए - एकाग्र दृष्टि गड़ाए हुए, अज्झोववण्णे - अत्यंत तन्मय, पमत्तं - लापरवाह, दिसालोयं करेइ - ईधर-उधर देखा, अल्लियावेइ - दबा लिया-छिपा लिया, पिहेइ - ढक दिया, जीवियाओ ववरोवेइ - मार डाला, णिप्पाणं - निष्प्राण-प्राण रहित, णिच्चेटुं - चेष्टा रहित, जीवियविप्पजढं - आत्मप्रदेश रहित, पक्खिवइ - फेंक दिया, खिवेमाणे - व्यतीत करता हुआ। भावार्थ - उसी समय विजय नामक चोर राजमृह नगर के बहुत से द्वार-अपद्वार यावत् पूर्वोक्त विभिन्न स्थानों की मार्गणा-गवेषणा करता हुआ, वहाँ आ पहुंचा, जहाँ बालक देवदत्त था। उसने देखा - बालक देवदत्त विभिन्न आभूषणों से विभूषित है। उसके मन में गहनों के प्रति अत्यधिक मूर्छा-आसक्ति, लोलुपता, तन्मयता का भाव जागा। उसने यह भी देखा कि दास पुत्र पन्थक असावधान है, चारों ओर दिशावलोकन किया, ईधर-उधर देखा, फिर बालक देवदत्त को उठाकर अपनी काँख में दबा लिया। अपने ओढे हुए वस्त्र से उसे छिपा लिया। फिर अत्यंत शीघ्र, त्वरित गति से वह राजगृह नगर के पीछे के दरवाजे से वह बाहर निकला। जीर्ण उद्यान में स्थित टूटे-फूटे कुएं पर आया। वहाँ उसने बालक देवदत्त की हत्या कर डाली। उसके सारे गहने उतार लिये। देवदत्त की निष्प्राण, निश्चेष्ट देह को कुएं में डाल दिया। फिर वह मालुकाकच्छ में गया। वहाँ वह चुपचाप बैठ गया तथा दिन ढलने का इंतजार करने लगा। विवेचन - बालक निसर्ग से ही सुन्दर और मनमोहक होते हैं। उनका निर्विकार भोला चेहरा मन को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। मगर खेद है कि विवेकहीन माता-पिता उनके प्राकृतिक सौन्दर्य से सन्तुष्ट न होकर उन्हें आभूषणों से सजाते हैं। इसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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