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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - पुत्र-लाभ
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करती हैं।' यों विचार कर वह प्रातःकाल, सूर्योदय होने पर अपने पति धन्य सार्थवाह के पास आई और उनसे अपने दोहद का वृत्तान्त बतलाते हुए बोली - मैं आपसे आज्ञा प्राप्त कर उस दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। सार्थवाह ने कहा - 'देवानुप्रिये! जिससे तुम्हें सुख मिले, उसे अविलंब क्रियान्वित करो।'
(१८) तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी हट्टतुट्ठा जावं विपुलं असणं ४ जाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता ण्हाया जाव उल्लपडसाडगा जेणेव णागघरए जाव डहइ २ ता पणामं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। तए णं ताओ मित्तणाइ जाव णगरमहिलाओ भदं सत्थवाहिं सव्वालंकार विभूसियं करेंति। तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहिं मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियण-णगर-महिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं ४ जाव परिभुंजमाणी य दोहलं विणेइ २ ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
भावार्थ - भद्रा दोहद पूर्ति के संबंध में अपने पति से आज्ञा प्राप्त कर बहुत ही प्रसन्न हुई। अपने चिंतनानुरूप अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला आदि की व्यवस्था पूर्वक वह गीले वस्त्रों में, नारियों से घिरी हुई, नागदेवायतन आदि में गई। वहाँ धूप आदि से पूजोपचार किए। प्रणमन किया। वहाँ से सरोवर के तट पर आई। साथ की महिलाओं ने उसको सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। फिर भद्रा ने उन नारियों के साथ विविध अशन, पान आदि का उपभोग किया। इस प्रकार अपने दोहद की पूर्ति की। फिर वह जहाँ से आई थी, वहीं अपने घर लौट गई।
(१९) तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुण्ण-डोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं सुकुमालपाणिपायं जाव दारगं पयाया। .
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