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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
४ उक्खडेइ २ ता बहवे णागा य जाव वेसमाणा य उवायमाणी णमंसमाणी जाव एवं च णं विहरइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था। ___ भावार्थ - तत्पश्चात् भद्रा चतुर्दशी, अष्टमी तथा पूर्णिमा के दिन विपुल मात्रा में अशन पान आदि तैयार करवा कर नाग आदि देवों को चढाती, उन्हें नमस्कार करती। यह क्रम चलता रहा। कुछ समय बाद भद्रा सार्थवाही गर्भवती हुई।
(१७) तए णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुबहुयं पुप्फवत्थ-गंधमल्लालंकारं गहाय मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणमहिलियाहि य सद्धिं संपरिवुडाओ रायगिहं णयरं मज्झमझेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोक्खरिणी
ओगाहेंति २ त्ता ण्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकार-विभूसियाओ विपुलं असणं ४ आसाएमाणीओ जाव पडिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तस्स गब्भस्स जाव विणेति, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी जाव विहरित्तए। अहा सुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।
भावार्थ - दो महीने व्यतीत हो गए तथा तीसरा माह चल रहा था, तब भद्रा के मन में इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ, वह सोचने लगी कि - 'वे माताएँ धन्य हैं, शुभलक्षणा हैं, जो विपुल, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गंध, माला आदि लेकर मित्र, जातीयजन, संबंधी एवं परिवार की महिलाओं से घिरी हुई, राजगृह नगर के बीचोंबीच से निकलती हुई, पुष्करिणी पर जाती हैं। उसमें अवगाहन एवं स्नान करती हैं, पुण्योपचार कर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि का उपभोग करती हैं, सहवर्तिनी नारियों को करवाती है। इस प्रकार अपना दोहद पूर्ण
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