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________________ संघाट नामक दूसरा अध्ययन - पुत्र-लाभ २०५ - जाव अणुवड्ढेमि तिकटु उवाइयं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विपुलं असणं प्राणं खाइमं साइमं आसाएमाणी जाव विहरइ जिमिया जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। .. शब्दार्थ - ओगाहेइ - अवगाहन कर-प्रवेश कर,.उल्लपडसाडिगा - गीले वस्त्रों से युक्त, पच्चोरुहइ - निकलती है, आलोए - दर्शन करती है, ईसिं - कुछ, पच्चुण्णमइ - झुकती है, लोमहत्थगं - मोर की पाँखों से बने प्रमार्जक-मोरपिच्छी, परामुसइ - ग्रहण करती है, अब्भुक्खेइ - अभिसिञ्चित करती है, रुहणं - धारण कराना, चुण्ण - चूर्ण-सुगंधित वनौषधियों का चूरा, डहइ - जलाती है। भावार्थ - सार्थवाही धन्या अपने पति की आज्ञा प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न हुई। उसने विपुल अशन, पान आदि तैयार करवाए। बहुविध सुंदर पुष्प, सुगंधित पदार्थ तथा मालाएँ लीं। अपने घर से निकली। राजगृह नगर के बीचोंबीच से चलती हुई, वह सरोवर पर आई। सरोवर के तट पर पुष्प आदि सामग्री को रखा। सरोवर में प्रवेश किया, मार्जन, जल-क्रीड़ा एवं स्नान किया। पुण्योपचार किया। गीली साड़ी धारण किए हुए उसने विविध प्रकार के कमल लिए। सरोवर से बाहर निकली। अनेकानेक सुगंधित पदार्थ, मालाएँ आदि लेकर नाग आदि देवायतनों में आई। वहाँ प्रतिमाओं का दर्शन किया, उन्हें प्रणाम किया। कुछ झुक कर मोरपिच्छी को उठाया और उससे प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया। जलधारा से अभिषेक किया। सुकोमल सुगंधित काषाय रंग के वस्त्र से उन्हें पौंछा। बहुमूल्य वस्त्र, मालाएँ, सुगंधित पदार्थ उन्हें समर्पित किए। सुगंधित वनौषधियों के चूर्ण एवं चंदनादि से चर्चित किया। ऐसा कर धूप जलाया। पैरों के बल जमीन पर नीचे घुटने टिकाते हुए, हाथ जोड़कर वह बोली - 'यदि मेरे पुत्र या पुत्री का जन्म हो तो मैं पूजा, द्रव्योपहार एवं अक्षयदेवनिधि का संवर्धन करूंगी।' इस प्रकार मनौती मनाकर वह सरोवर के तट पर आई। वहाँ सहवर्तिनी महिलाओं के साथ अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य आदि को ग्रहण किया। फिर शुचिभूत-हाथ, मुँह आदि धोकर अपने घर आई। . पुत्र-लाभ . . (१६) . . अदुत्तरं च णं भद्दा सत्थवाही चाउद्दसट्ट-मुद्दिट्ट-पुण्णमासिणीसु विपुलं असणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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