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________________ २०० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र वह नृशंस एवं अनुकंपा रहित था। साँप की ज्यों उसकी दृष्टि अपने क्रूर कर्म पर एकाग्रता पूर्वक टिकी रहती थी। छुरे की धार की तरह उसकी प्रवृत्ति दुस्सह थी। गिद्ध के समान मांस लोलुप, अग्नि के समान सर्वभक्षी एवं जल के समान सर्वग्राही था। जब चोरी करता, कुछ भी नहीं छोड़ता। वह प्रवंचना, कपट, छल, माया आदि कलुषित कार्यों में बड़ा ही माहिर था। चौर्य विषयक बहुविध कार्यों के संप्रयोग में निष्णात था। शील, आचार एवं चरित्र से भ्रष्ट था। जुआरी एवं शराबी था। उसके कार्य हृदय विदारक थे। वह साहसी-चोरी करने में निःशंक था। तीर्थ रूप देवद्रोणी (देवस्थान) आदि का भेदन करके उसमें से द्रव्य हरण करने वाला और हस्तलाघव वाला था। पराया द्रव्य हरण करने में सदैव तैयार रहता था तीव्र वैर वाला था। ____ वह विजय चोर राजगृह नगर के बहुत से प्रवेश करने के मार्गों, निकलने के मार्गों, दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किलों की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के अड्डों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों), चोरों के घरों, श्रृंगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउओं, दुकानों और शून्यगृहों को देखता फिरता था। उनकी मार्गणा करता था-उनके विद्यमान गुणों का विचार करता था, उनकी गवेषणा करता था, अर्थात् थोड़े जनों का परिवार हो तो चोरी करने में सुविधा हो, ऐसा विचार किया करता था। विषम-रोग की तीव्रता, इष्टजनों के वियोग, व्यसन-राज्य आदि की ओर से आये हुए संकट, अभ्युदय-राज्यलक्ष्मी आदि के लाभ, उत्सवों, प्रसवपुत्रादि के लाभ, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण-बहुत लोकों के भोज आदि के प्रसंगों, यज्ञ-नाग आदि की पूजा, कौमुदी आदि पर्वणी में, अर्थात् इन सब प्रसंगों पर बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में आकुल-व्याकुल हों, सुख में हों, दुःख में हों, परदेश गये हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह (एकान्त) का और अन्तर (अवसर) का विचार करता और गवेषणा करता रहता था। (१०) बहिया वि य णं रायगिहस्स णगरस्स आरामेसु य उजाणेसु य वाविपोक्खरणी-दीहिया-गुंजालिया सरेसु य सरपंतिसु य सरसरपंतियासु य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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